भारतीय कला का आधुनिक सफर

 समकालीन कला, जिसे हम आज देखते हैं, 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी में विकसित हुई है। यह एक ऐसी कला है जो अपनी सीमाओं को तोड़ती है और किसी एक परिभाषा में नहीं बाँधी जा सकती। आज के कलाकार वैश्विक प्रभावों, सांस्कृतिक विविधताओं और नई तकनीकों का उपयोग करके ऐसी कला बना रहे हैं जो पारंपरिक नियमों को चुनौती देती है। इस कला का कोई एक सिद्धांत या विचारधारा नहीं है, बल्कि यह व्यक्तिगत और सांस्कृतिक पहचान जैसे बड़े सामाजिक मुद्दों पर एक संवाद है।

1947 में भारत की आजादी के बाद, बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप ने भारतीय कला को एक नई दिशा दी। इस ग्रुप के बाद, भारतीय कला में विविधता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई। 20वीं सदी के उत्तरार्ध में पेंटिंग और मूर्तिकला प्रमुख रहीं, जहाँ नलिनी मलानी और सुबोध गुप्ता जैसे कलाकारों ने इनमें नए प्रयोग किए। इस दौरान, गीता कपूर और आर. सिवा कुमार जैसे कला समीक्षकों ने भी भारतीय कला के बारे में हमारी सोच को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1997 का साल कला के इतिहास में खास था। एक तरफ, बड़ौदा ग्रुप के काम को 'कंटेम्परेरी आर्ट इन बड़ौदा' नामक किताब में दर्ज किया गया। दूसरी तरफ, कला इतिहासकार आर. सिवा कुमार ने 'अ कॉन्टेक्चुअल मॉडर्निज्म' के माध्यम से साबित किया कि शांतिनिकेतन के कलाकारों जैसे रवींद्रनाथ टैगोर और नंदलाल बोस ने 1930 के दशक में ही, पश्चिमी कला से प्रभावित हुए बिना, भारत में आधुनिक कला की नींव रख दी थी।

प्रोफेसर गैल का मानना है कि 'उत्तर-औपनिवेशिक आधुनिकतावाद' जैसा शब्द भारतीय कला के संदर्भ में ज़्यादा सही है। उनका तर्क है कि भारतीय कलाकारों ने गुलामी के दौरान हीनता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और अपनी कला के माध्यम से नस्लीय भेदभाव को चुनौती दी थी। आर. सिवा कुमार भी मानते हैं कि शांतिनिकेतन के कलाकार पहले ऐसे थे जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कला और पुरानी भारतीय कला, दोनों से हटकर एक ऐसी आधुनिकता विकसित की जो भारतीय संदर्भों से जुड़ी थी।

यह समझना ज़रूरी है कि कला के किसी भी आंदोलन की शुरुआत तय करना मुश्किल है। 'आधुनिक' शब्द का मतलब समय के साथ बदलता रहा है। भारत के समकालीन कला को समझने के लिए, हमें यहाँ हुए हर कला आंदोलन और हर कलाकार के प्रयासों को बारीकी से देखना होगा।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ