राजस्थानी चित्रकला का विकास मुख्य रूप से 16वीं से 19वीं शताब्दी तक राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में हुआ. आनंद कुमारस्वामी ने इसे "राजपूत चित्रकला" नाम दिया, जो इसकी पहचान को मुगल कला से अलग करता है. इस शैली में सशक्त रेखांकन, चमकीले रंग और मानवीय आकृतियों, प्रकृति व वास्तुकला का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है. स्थानीय लोक परंपराओं की झलक हर चित्र में स्पष्ट दिखाई देती है.
चित्रण की विशिष्टताएँ
राजस्थानी चित्रकार अपनी कलाकृतियों को 'वसली' नामक मोटे हस्तनिर्मित कागज़ पर बनाते थे. इस कागज़ को बनाने के लिए कई पतले कागजों को गोंद से चिपकाया जाता था. चित्रों में प्राकृतिक खनिजों, यहाँ तक कि सोने और चांदी का भी प्रयोग रंगों के रूप में होता था. बारीक विवरणों के लिए ऊँट या गिलहरी के बालों से बने ब्रश का उपयोग किया जाता था. चित्र पूरा होने पर उसे अगेट पत्थर से घिसा जाता था, जिससे एक चमकदार और परिष्कृत स्वरूप आता था.
चित्रकला अक्सर एक सामूहिक प्रयास होता था, जहाँ मुख्य कलाकार रेखांकन करता और बाकी कलाकार रंग भरने व विवरण जोड़ने का काम करते थे. कई चित्रों में नीचे श्लोक या पद लिखने के लिए सुलेखक भी होते थे.
मुख्य विषयवस्तु
राजस्थानी चित्रकला में विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला मिलती है:
भक्ति और कृष्ण लीला: 16वीं शताब्दी के वैष्णव भक्ति आंदोलन का गहरा प्रभाव इस शैली पर पड़ा. कृष्ण को केवल भगवान के रूप में नहीं, बल्कि एक आदर्श प्रेमी के रूप में भी चित्रित किया गया. राधा-कृष्ण का प्रेम, उनके मिलन और वियोग के दृश्य आध्यात्मिक और मानवीय दोनों भावनाओं को दर्शाते हैं.
साहित्यिक ग्रंथ: जयदेव का 'गीत गोविंद', भानुदत्त की 'रसमंजरी', केशवदास की 'रसिकप्रिया' और 'कविप्रिया', और बिहारीलाल की 'बिहारी सतसई' जैसे ग्रंथ इन चित्रों के लिए प्रेरणास्रोत रहे.
रागमाला: यह एक अनूठी कला है जहाँ संगीत के रागों और रागिनियों को चित्रों के माध्यम से दृश्य रूप दिया गया.
प्रेम कथाएँ: ढोलामारू, सोनी-महिवाल, मृगावत जैसी लोकप्रिय लोक प्रेम कहानियों को भी चित्रों में जीवंत किया गया.
शाही और लोक जीवन: दरबार के दृश्य, युद्ध, त्योहारों का जश्न, शिकार, संगीत और नृत्य, विवाह समारोह, राजाओं के व्यक्ति चित्र, और आम शहरी जीवन भी इन चित्रों का हिस्सा थे.
प्रमुख चित्रकला शैलियाँ और उनकी विशेषताएँ
राजस्थानी चित्रकला को मुख्य रूप से चार उप-शैलियों में बांटा गया है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अनूठी पहचान है:
मेवाड़ शैली: यह राजस्थान की सबसे पुरानी और मूल शैली मानी जाती है.
विशेषताएँ: इस पर अजंता शैली का प्रभाव दिखता है. नसिरुद्दीन और साहिबद्दीन जैसे चित्रकारों ने रागमाला और रामायण जैसे विषयों पर काम किया. चावंड और नाथद्वारा (पिछवाई चित्रकला) इसकी प्रमुख उप-शैलियाँ हैं. नाथद्वारा शैली में भगवान कृष्ण और केले के वृक्ष के चित्र विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं.
उदाहरण: 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी' (1260 ई.) और 'मारू रागिनी' (1628 ई.) मेवाड़ शैली के महत्वपूर्ण चित्र हैं.
मारवाड़ शैली: इसमें जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ जैसी उप-शैलियाँ शामिल हैं.
जोधपुर शैली: मालदेव के समय प्रारंभ हुई. मानसिंह का काल इसका स्वर्णकाल था. इस पर मुगल प्रभाव भी देखा गया. 'ढोला मारू' जैसे प्रेम प्रसंगों का चित्रण यहाँ की विशेषता है.
बीकानेर शैली: इस पर मुगल और दक्कनी कला का प्रभाव है. उस्ता कला (ऊंट की खाल पर चित्रकारी) और मथेरण कला (गीले प्लास्टर पर चित्रकारी) यहाँ की विशेष पहचान हैं. चित्रों में कलाकार का नाम और तिथि लिखने की परंपरा थी.
किशनगढ़ शैली: सावंत सिंह (नागरीदास) के समय विकसित हुई. यह अपनी 'बनी-ठनी' चित्र के लिए विश्व प्रसिद्ध है, जिसे 'भारत की मोनालिसा' कहा जाता है. लंबी घुमावदार आँखें, नुकीली नाक और पतले होंठ यहाँ की स्त्रियों के चित्रण की पहचान हैं.
ढूंढाड़ शैली: इसमें जयपुर और अलवर जैसी उप-शैलियाँ प्रमुख हैं.
जयपुर शैली: मुगल कला का गहरा प्रभाव दिखता है. सवाई प्रताप सिंह का काल इसका स्वर्णकाल था. यहाँ आदमकद व्यक्ति चित्र बनाने की शुरुआत हुई.
अलवर शैली: विनयसिंह के समय इसका विकास हुआ. हाथीदांत पर चित्रकारी और चिकने रंगों का प्रयोग यहाँ की विशेषता है.
हाड़ौती शैली: इसमें बूँदी और कोटा की चित्रकला शामिल है.
बूँदी शैली: उमेद सिंह का समय इसका स्वर्णकाल था. यह हरे रंग, प्रकृति चित्रण (पेड़, झरने) और शिकार के दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है. बूँदी महल के भित्तिचित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.
कोटा शैली: यह अपनी शिकार के दृश्यों के लिए विशिष्ट है, जहाँ महिलाओं को भी शिकार करते हुए दर्शाया गया है. उमेद सिंह के समय इसका स्वर्णकाल था.
निष्कर्ष
राजस्थानी चित्रकला शैली भारतीय कला के विविध रूपों का एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत करती है. इन चित्रों में न केवल सौंदर्य और कलात्मकता है, बल्कि वे उस समय के धार्मिक विश्वासों, सामाजिक रीति-रिवाजों और शाही जीवन को भी दर्शाते हैं. आधुनिक समय में भी, कई कलाकार इस परंपरा को जीवित रख रहे हैं, जो राजस्थान की समृद्ध कला विरासत का प्रमाण है.
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