पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा

 भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत समृद्ध है, और पांडुलिपि चित्रकला इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है.


1. भारतीय चित्रकला की सामान्य परंपरा

  • 'चित्रसूत्र' - चित्रकला का आधार ग्रंथ:

    • स्रोत: विष्णुधर्मोत्तर पुराण का तीसरा खंड (5वीं शताब्दी ईस्वी).

    • महत्व: इसे भारतीय चित्रकला का मूल और आधारभूत ग्रंथ माना जाता है.

    • विषय-वस्तु: इसमें चित्र बनाने की विधियाँ, आकृतियों के नियम (प्रतिमा लक्षण), आवश्यक उपकरण, रंगों का प्रयोग, चित्र बनाने की सतहें और मानव आकृतियों की संरचना का विस्तृत वर्णन है.

    • प्रभाव: सदियों से कलाकारों द्वारा इसका पालन किया गया है, और यह लगभग सभी भारतीय चित्रकला शैलियों का आधार है.

  • लघु चित्रकारी (Miniature Painting):

    • परिभाषा: मध्यकाल की वह चित्रकला जो छोटे आकार की होती थी, जिसे हाथ में लेकर करीब से देखा जाता था.

    • भिन्नता: यह महलों की दीवारों पर बनने वाले भित्तिचित्रों से अलग है.

  • पांडुलिपि चित्रण (Manuscript Illustration):

    • मुख्य रूप: लघु चित्रों का एक बड़ा हिस्सा पांडुलिपियों (जैसे रामायण, महाभारत, गीत गोविंद) में मिलता है.

    • उद्देश्य: इन चित्रों को अक्सर धार्मिक, साहित्यिक या संगीत संबंधी ग्रंथों में छंदों के ऊपर या पीछे बनाया जाता था ताकि पाठ को सचित्र किया जा सके.

  • चित्रों का संग्रह और पोटली प्रणाली:

    • संरचना: इन लघु चित्रों वाले पृष्ठों को 'पर्ण' या 'फोलियो' कहा जाता था.

    • संग्रहण: इन्हें कपड़े में लपेटकर 'पोटली' के रूप में राजाओं या संरक्षकों के निजी पुस्तकालयों में सुरक्षित रखा जाता था.

    • महत्वपूर्ण पृष्ठ: 'पुष्पिका पृष्ठ' पर अक्सर कलाकार, लेखक, निर्माण की तारीख और स्थान की जानकारी मिलती थी, हालांकि कई बार ये पृष्ठ समय के साथ नष्ट हो गए हैं.

  • चित्रों की संवेदनशीलता और उपयोग:

    • नाजुकता: ये चित्र नमी, आग आदि से आसानी से नष्ट हो सकते थे, इसलिए इन्हें बहुत कीमती माना जाता था.

    • उपयोग: ये अक्सर राजकुमारियों की शादी में उपहार के रूप में दिए जाते थे, राजाओं के बीच कला के आदान-प्रदान में उपयोग होते थे, और तीर्थयात्रियों, साधुओं व व्यापारियों के माध्यम से दूर-दूर तक पहुँचते थे (जैसे मेवाड़ और बूँदी के चित्रों का आदान-प्रदान).

  • चित्र इतिहास का पुनर्निर्माण:

    • चुनौती: बहुत कम चित्रों पर निर्माण की तिथि अंकित होती है, जिससे उनका सही काल निर्धारण करना मुश्किल हो जाता है.

    • वर्तमान स्थिति: ये चित्र अब विभिन्न संग्रहालयों और निजी संग्रहों में बिखरे हुए हैं.

    • विद्वानों का कार्य: कला के विद्वान इन चित्रों की शैली और अन्य उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इन्हें पहचानते और सही कालक्रम में व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं.


2. पश्चिम भारतीय चित्रकला शैली

  • स्थान और विकास:

    • भौगोलिक विस्तार: मुख्य रूप से भारत के पश्चिमी भाग - गुजरात, दक्षिण राजस्थान और पश्चिम मध्य भारत में विकसित हुई.

    • संरक्षण: गुजरात में धनी व्यापारियों और सामंतों, विशेषकर जैन समुदाय के व्यापारियों, ने इस कला को महत्वपूर्ण संरक्षण दिया.

  • जैन चित्रकला:

    • परिभाषा: जैन धर्म के विषयों और पांडुलिपियों पर आधारित चित्रकला.

    • परंपरा: 'शास्त्र दान' की परंपरा थी, जिसमें सचित्र पांडुलिपियों को मठों के पुस्तकालयों (भंडार) में दान करना एक पवित्र कार्य माना जाता था.

  • प्रमुख चित्रित ग्रंथ:

    • कल्पसूत्र: जैन चित्रकला में सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ, जो 24 तीर्थंकरों के जीवन की मुख्य घटनाओं का चित्रण करता है (गर्भाधान, जन्म, गृहत्याग, ज्ञान, उपदेश, निर्वाण).

    • कालकाचार्यकथा: आचार्य कालक की बहन को बचाने की कथा पर आधारित.

    • उत्तराध्ययन सूत्र: भिक्षुओं के आचार नियमों का विवरण देता है.

    • संग्राहिणी सूत्र (12वीं शताब्दी): ब्रह्मांड और अंतरिक्ष संबंधी ज्ञान प्रदान करता है.

  • पांडुलिपि संरचना:

    • स्वरूप: चित्रों को पोथियों या पर्णों (फोलियो) के रूप में बनाया जाता था.

    • सुरक्षा: इन्हें लकड़ी के 'पटलिस' (आवरण) से ढककर डोरी से सुरक्षित रखा जाता था.

    • सामग्री का विकास: प्रारंभ में ताड़ के पत्तों (11वीं शताब्दी) पर चित्र बनते थे, लेकिन 14वीं शताब्दी से कागज़ का उपयोग शुरू हुआ.

  • चित्र शैली की विशेषताएँ:

    • रंग: चमकीले रंगों के साथ सोना और लाजवर्त (नीला पत्थर) का उपयोग होता था.

    • संरचना: चित्रों को अक्सर वर्गों में बाँटा जाता था ताकि एक ही चित्र में कई घटनाएँ दिखाई जा सकें.

    • रेखाएँ: पतली और लहरदार रेखाएँ.

    • मानव आकृति: चेहरे पर तीसरी आँख का चित्रण एक विशिष्ट पहचान है.

    • वास्तुकला: सल्तनत काल की गुंबद और मेहराब जैसी वास्तुकला का प्रभाव.

    • स्थानीयता: लोक जीवन, वेशभूषा और वस्तुओं में स्थानीय प्रभाव स्पष्ट दिखता है.

  • प्रकृति और सामाजिक जीवन:

    • भू-दृश्य: प्रकृति का चित्रण प्रतीकात्मक रूप में होता था.

    • सजावट: चित्रों के किनारों पर देवी-देवताओं, नृत्य करती नायिकाओं और संगीतकारों को सजावटी रूप में दर्शाया जाता था.

    • स्वर्णकाल: 1350 से 1450 ईस्वी का समय जैन चित्रकला का स्वर्णकाल माना जाता है.

  • धार्मिक से इतर विषय:

    • विविधता: जैन धार्मिक ग्रंथों के अलावा, तीर्थपट, मंडल और गैर-धार्मिक कहानियाँ भी चित्रित की जाती थीं.

    • संरक्षण: इन चित्रों का निर्माण और संरक्षण मुख्य रूप से धनी व्यापारियों और भक्तों द्वारा किया जाता था.

  • पूर्व-मुगल / स्वदेशी शैली:

    • काल: यह शैली राजस्थानी दरबार और मुगल प्रभाव से पहले की मानी जाती है.

    • प्रमुख विषय: महापुराण, चौरपंचाशिका, महाभारत, भागवत पुराण और गीत गोविंद.

    • अन्य नाम: इसे पूर्व-राजस्थानी या स्वदेशी शैली के नाम से भी जाना जाता है.

  • मानव आकृति और वस्त्र:

    • आकृति: मानव शरीर को एक विशेष शैली में दर्शाया गया है.

    • ओढ़नी: नायिकाओं की ओढ़नी गुब्बारे जैसी और किनारे नुकीले होते थे.

    • वस्त्र: वस्त्रों को पारदर्शी रूप में चित्रित किया जाता था.

    • विवरण: जल, वनस्पति और जीव-जंतुओं को बारीक रेखाओं से दर्शाया जाता था.

  • सल्तनत और फारसी प्रभाव:

    • आरंभ: 12वीं शताब्दी के अंत से फारसी, तुर्क और अफगानी प्रभाव चित्रकला में दिखाई देने लगे.

    • विकास: मालवा, गुजरात और जौनपुर जैसे क्षेत्रों में सल्तनत काल की चित्रकला का विकास हुआ.

    • मिश्रण: स्वदेशी और फारसी शैली के मिश्रण से एक नई चित्रण पद्धति का जन्म हुआ.

    • निमतनामा: मांडू में नासिर शाह खिलजी (1500–1510 ई.) के काल में रचित 'निमतनामा', व्यंजनों की एक सचित्र पुस्तक है, जिसमें खानपान, दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों और शिकार का चित्रात्मक वर्णन है.

    • अन्य कथाएँ: सूफी विचारों पर आधारित कहानियाँ और लौराचंदा चित्रकला भी इस शैली के उदाहरण हैं.


3. पाल चित्रकला शैली

  • काल और स्थान:

    • अवधि: पाल काल (750 ई.–12वीं शताब्दी) को बौद्ध कला का अंतिम स्वर्णिम युग माना जाता है.

    • क्षेत्र: मुख्य रूप से पूर्वी भारत, विशेषकर बिहार और बंगाल में विकसित हुई.

  • महत्वपूर्ण केंद्र:

    • महाविहार: नालंदा और विक्रमशिला जैसे महाविहार ज्ञान, धर्म और कला के प्रमुख केंद्र थे.

    • पांडुलिपियाँ: यहाँ बौद्ध धर्म और बज्रयान परंपरा से जुड़ी सचित्र पांडुलिपियाँ ताड़पत्र पर बनाई जाती थीं.

  • पाल चित्रकला की विशेषताएँ:

    • रेखाएँ: लयात्मक और प्रवाहपूर्ण (जो जैन चित्रकला की तीखी रेखाओं से भिन्न थीं).

    • रंग: हल्के और शांत रंगों का प्रयोग.

    • शैली में समानता: चित्रों और मूर्तियों में अजंता की कला के समान शैलीगत समानता दिखती है.

  • महत्वपूर्ण पांडुलिपि: अष्टसहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता:

    • अर्थ: "आठ हजार श्लोकों वाली बुद्ध की ज्ञान परंपरा".

    • स्वरूप: ताड़पत्र पर चित्रित एक उत्कृष्ट बौद्ध पांडुलिपि.

    • निर्माण: नालंदा विश्वविद्यालय में, पाल शासक रामपाल के शासनकाल में (11वीं शताब्दी का अंतिम चरण).

  • संरचना और संग्रहण:

    • पन्ने: इस पांडुलिपि में 6 चित्रित पृष्ठ थे.

    • आवरण: दोनों ओर चित्रित लकड़ी के आवरण (कवर) होते थे.

    • सुरक्षा: इन्हें फीते से बाँधकर सुरक्षित रखा जाता था.

  • विदेशों में प्रसार:

    • छात्र और तीर्थयात्री: नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका और जावा जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से छात्र और तीर्थयात्री नालंदा व विक्रमशिला में शिक्षा लेने आते थे.

    • प्रभाव: वे अपने साथ पाल कला की प्रतियाँ ले गए, जिससे यह कला विदेशों में भी फैली और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुई.

  • अंत और विनाश:

    • कारण: 13वीं शताब्दी की शुरुआत में मुस्लिम आक्रमणों के कारण नालंदा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध विहार नष्ट हो गए.

    • परिणाम: इसके साथ ही पाल चित्रकला और ताड़पत्र पर आधारित पांडुलिपि परंपरा का भी अंत हो गया.

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