पहाड़ी चित्रकला शैली का विकास 17वीं से 19वीं शताब्दी के बीच हिमालयी क्षेत्रों जैसे बसोहली, गुलेर, काँगड़ा, चंबा, मंडी, कुल्लू और गढ़वाल में हुआ. यह शैली पहले चमकीली और अलंकृत बसोहली शैली से शुरू हुई और बाद में काँगड़ा शैली के रूप में अत्यंत परिष्कृत और भावनात्मक बन गई.
यद्यपि इसमें मुगल, दक्कनी और राजस्थानी शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है, फिर भी यह एक स्वतंत्र क्षेत्रीय शैली के रूप में उभरी. बी.एन. गोस्वामी ने इसके विकास का श्रेय पंडित सिऊ के कलाकार परिवार को दिया, जिन्होंने बसोहली से काँगड़ा शैली तक इसके रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके अनुसार, राजनीतिक सीमाओं की बजाय कलाकारों के परिवारों को शैली के वाहक मानना अधिक उचित है. इस शैली में नैसर्गिक सौंदर्य, आदर्श स्त्री चेहरे, और राजसी जीवन के दृश्य प्रमुख हैं.
बसोहली शैली
बसोहली चित्रकला की शुरुआत:
प्रथम प्रभावशाली शैली: बसोहली (एक पहाड़ी राज्य) को पहाड़ी चित्रकला की पहली प्रभावशाली शैली माना जाता है.
संरक्षक: यह शैली राजा कृपाल पाल (1678–1695) के शासनकाल में विकसित हुई.
महत्व: इसने अपनी विशिष्ट रंग योजना, भावनात्मक अभिव्यक्ति और धार्मिक-साहित्यिक विषयों के चित्रण से पहाड़ी चित्रकला परंपरा की नींव रखी और कांगड़ा, गढ़वाल आदि शैलियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी.
बसोहली शैली की विशेषताएँ:
रंग: तेज़ प्राथमिक रंगों (जैसे लाल, पीला, नीला) का प्रयोग, अक्सर पीली पृष्ठभूमि.
परिदृश्य: ऊँचा क्षितिज और शैलीगत (stylized) प्राकृतिक दृश्यांकन.
विशेष तकनीक: उभरे हुए सफेद रंग का प्रयोग (गहनों में मोती के लिए), हरे कीट-पंखों और पन्ना जैसे प्रभावों से जेवरों का अलंकरण.
साम्यता: इसकी सौंदर्य दृष्टि पश्चिम भारतीय चौरपंचाशिका शैली से मिलती-जुलती है.
प्रमुख विषय और कलाकार:
ग्रंथ: रासमंजरी (भानुदत्त), भागवत पुराण और रागमाला.
चित्रकार: प्रसिद्ध चित्रकार देवीदास ने 1694–95 में रासमंजरी की एक सुंदर चित्रमाला बनाई.
विषय-वस्तु: राधा-कृष्ण और धार्मिक प्रसंगों के अलावा, राजाओं, उनकी पत्नियों, दरबारियों, गणिकाओं, ज्योतिषियों आदि के छवि चित्र भी बनाए गए.
शैली का विस्तार:
बसोहली शैली का प्रभाव धीरे-धीरे चंबा, कुल्लू, नूरपुर, मनकोट, गुलेर और काँगड़ा जैसे पहाड़ी क्षेत्रों तक फैला.
गुलेर-काँगड़ा शैली का विकास: 1690 से 1730 के बीच, बसोहली शैली का परिष्कृत और विकसित रूप माना जाता है.
कुल्लू की रामायण चित्र श्रृंखला – 'शांगरी':
विषय: रामायण, विशेष रूप से राम के वनगमन और दान के दृश्य.
कलात्मकता: भावनात्मक गहराई, रंगों की सजीवता और पात्रों की मुद्रा के माध्यम से कथा के मार्मिक क्षणों का प्रभावशाली चित्रण.
राम वनगमन वाला चित्र:
राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए तैयार खड़े हैं, राम गायें, आभूषण, वस्त्र और सोने के सिक्के दान दे रहे हैं.
ब्राह्मण, बैरागी, आम लोग और सेवक अपने-अपने भावों (कृतज्ञता, अविश्वास, प्रसन्नता नहीं) के साथ.
राम के चेहरे पर शांत मुस्कान, लक्ष्मण आतुर, सीता आशंकित.
गुरु विश्वामित्र के साथ वन गमन चित्र:
राम और लक्ष्मण राक्षसों के विनाश हेतु गुरु के साथ प्रस्थान करते हुए.
पेड़ों के पीछे छिपे जानवर (लोमड़ी, शेर) खतरे और साहस के प्रतीक, कपटी राक्षसों का संकेतात्मक चित्रण.
मुख्य बिंदु सारांश (बसोहली):
बसोहली से शुरू हुई पहाड़ी चित्रकला का विस्तार कुल्लू और काँगड़ा तक हुआ.
कला, साहित्य, भक्ति और भाव का सुंदर समावेश.
चित्रों में प्राकृतिक विवरण, मानवीय भावनाएँ और प्रतीकात्मकता स्पष्ट झलकती है.
गुलेर शैली
उदय: 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में बसोहली शैली में परिवर्तन के साथ गुलेर-काँगड़ा शैली का उदय.
श्रेय: पंडित सिऊ और उनके पुत्रों मनकु (मानक) और नैनसुख को.
संरक्षण: राजा गोवर्धन चंद (1744–73) के संरक्षण में पहले गुलेर में, फिर काँगड़ा, चंबा और कुल्लू तक फैली.
नैनसुख की विशेषता: जसरोटा के राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार थे, उनके जीवन के दृश्य अत्यंत यथार्थ रूप में चित्रित किए.
रंग: हल्के, कोमल रंग, विशेष रूप से श्वेत और धूसर का सुंदर प्रयोग.
मनकु की विशेषता: गोवर्धन चंद और उनके परिवार के छवि चित्र बनाए, जिसमें गीत गोविंद श्रृंखला (1730) विशेष रूप से प्रसिद्ध है.
उत्तराधिकारी कलाकार: गोवर्धन चंद के पुत्र प्रकाश चंद ने भी कला को प्रोत्साहित किया; मनकु व नैनसुख के पुत्र कौशल, फत्तू और गोधू उनके दरबारी कलाकार रहे.
दीर्घकालिक प्रभाव: गुलेर शैली सभी पहाड़ी चित्रशैलियों में सबसे दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली रही.
काँगड़ा शैली
काँगड़ा चित्रकला का विकास:
स्वर्ण युग: राजा संसार चंद (1775–1823) के संरक्षण में अभूतपूर्व विकास और उत्कर्ष.
कलाकारों का योगदान: गुलेर के प्रसिद्ध कलाकार मनकू और नैनसुख के काँगड़ा आने से शैली को नई ऊँचाई मिली.
प्रारंभिक और परिपक्वता: प्रारंभिक चित्र मुख्यतः आलमपुर में, जबकि परिपक्व कृतियाँ नादौन में बनीं.
चित्रकला की विशेषताएँ:
काव्यात्मक और गीतात्मक: भारतीय चित्रशैलियों में सबसे काव्यात्मक और गीतात्मक शैली.
रेखाएँ और रंग: महीन रेखाएँ, चटक और सौम्य रंगों का संयोजन, तथा अलंकरण में अत्यंत बारीकी.
पहचान: महिला चेहरों में माथे से नाक तक सीधी रेखा.
मुख्य विषय: भागवत पुराण, गीत गोविंद, बिहारी सतसई, रागमाला और बारहमासा, जिनमें भक्ति, प्रेम और प्रकृति का सुंदर समन्वय है.
प्रसिद्ध कलाकार:
नैनसुख: राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार, यथार्थवादी जीवन चित्रण के लिए प्रसिद्ध.
मनकू: गीत गोविंद पर आधारित चित्र श्रृंखला के लिए प्रसिद्ध.
वंशज: उनके पुत्र कौशल, फत्तू और गोधू ने राजा संसार चंद के दरबार में कार्य किया और परंपरा को आगे बढ़ाया.
विशेष चित्रण – भागवत पुराण और रस पंचध्यायी:
विषय: गोपियों द्वारा कृष्ण की लीलाओं जैसे पूतना वध, गोवर्धन उठाना, और कालिया नाग मर्दन का अभिनयात्मक चित्रण.
कलात्मकता: भावनात्मकता और नाटकीयता का सुंदर संयोजन, भक्ति, प्रेम और नाट्य भाव को एक साथ जीवंत करता है.
अष्ट नायिका चित्रण:
विषय: प्रेम की आठ अवस्थाओं को दर्शाने वाली विशेष चित्रण श्रृंखला.
उदाहरण: अभिसारिका (प्रिय से मिलने जाने वाली), कलहांतरिता (झगड़े के बाद विरह में डूबी), स्वाधीनभर्तृका (प्रिय को वश में रखने वाली) आदि.
भाव: प्रेम की सूक्ष्म अनुभूतियों को सुंदर और भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत करता है.
बारहमासा चित्रण:
विषय: 12 महीनों के अनुसार प्रेम के भावों और मौसम के प्रभावों को 12 चित्रों में दर्शाया गया है.
प्रभाव: केशवदास की कविप्रिया के वर्णनों का उपयोग, विशेषकर ज्येष्ठ माह (गर्मियों) में विरह की पीड़ा का चित्रण.
महत्वपूर्ण चित्र और उनसे जुड़ी कथाएँ
प्रतीक्षारत कृष्ण और संशयशील राधा (गीत गोविंद श्रृंखला - मनकू द्वारा):
कलाकार परिवार का योगदान: पंडित सिऊ के पुत्र मानक (मनकू) और नैनसुख ने बसोहली शैली को काँगड़ा शैली तक विकसित किया. उनके पुत्रों (कौशल, फत्तू, गोधू) ने काँगड़ा चित्रकला के स्वर्णिम युग का नेतृत्व किया.
प्रेरणा: जयदेव द्वारा रचित संस्कृत काव्य 'गीत गोविंद' (राधा-कृष्ण की प्रेम लीला).
कथा: कृष्ण गोपियों के साथ रास रचाते हैं, राधा उदास होती हैं. कृष्ण उन्हें ढूँढ़ते हैं. एक सखी संदेशवाहक बनकर राधा को मनाती है, अंततः मिलन होता है (विरह से मिलन तक की यात्रा).
आध्यात्मिक प्रतीक: राधा = आत्मा/भक्त, कृष्ण = परमात्मा, मिलन = आध्यात्मिक एकात्मता.
चित्र की कल्पना: राधा संकोचवश झाड़ियों में जाने से हिचकिचा रही हैं, कृष्ण बेसब्री से राह देख रहे हैं. चित्र के पीछे जयदेव की पंक्तियाँ हैं: "राधा! संकोच छोड़ो, चूड़ियाँ खनकने दो और प्रेमी से मिलने चलो."
बलवंत सिंह नैनसुख के साथ एक चित्र देखते हुए (नैनसुख द्वारा):
विषय: जसरोटा के राजकुमार बलवंत सिंह अपने हाथों में कृष्ण का चित्र देख रहे हैं.
अद्वितीयता: कलाकार नैनसुख ने शायद पहली बार स्वयं को अपने संरक्षक के साथ चित्रित किया है (चित्र में सिर झुकाए खड़ा व्यक्ति नैनसुख हैं).
भाव: बलवंत सिंह महल में हुक्का पीते हुए वैराग्य और स्थिरता का प्रतीक बने हैं. पृष्ठभूमि में संगीतज्ञ हल्की धुन के लिए हैं, जो शांत वातावरण बनाता है.
कलात्मकता: नैनसुख की संयोजन क्षमता और राजा के शांत स्वभाव का सुंदर प्रस्तुतिकरण.
नंद, यशोदा और कृष्ण (भागवत पुराण श्रृंखला):
विषय: नंद बाबा अपने परिवार के साथ गोकुल छोड़कर वृंदावन जा रहे हैं, क्योंकि गोकुल में राक्षसों का संकट बढ़ गया था.
चित्रण: नंद बाबा बैलगाड़ी में आगे, और पीछे की गाड़ी में कृष्ण, बलराम, यशोदा और रोहिणी. स्त्री-पुरुष सामान और बच्चों के साथ चल रहे हैं.
यथार्थता: उनके हाव-भाव (सिर का झुकना, आँखों की थकान, हाथों की पकड़) बहुत बारीकी और यथार्थता से चित्रित किए गए हैं.
शैली की पहचान: काँगड़ा शैली की विशेषताओं जैसे प्राकृतिक दृश्य का सूक्ष्म अवलोकन और छायाचित्र जैसी सजीवता का उत्कृष्ट उदाहरण.
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