भारतीय कला में आधुनिकता का परिचय ब्रिटिश उपनिवेश काल में हुआ, जब यूरोपीय कला दृष्टिकोण और भारतीय कला परंपराओं के बीच एक संवाद शुरू हुआ. इस दौर में कला ने न केवल सौंदर्य के लिए, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के माध्यम के रूप में भी भूमिका निभाई.
1. भारत में आधुनिकता का परिचय
ब्रिटिश प्रभाव और कला विद्यालय: अंग्रेजों ने 19वीं सदी में लाहौर, कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में कला विद्यालय स्थापित किए, जहाँ अकादमिक और प्रकृतिवादी (यथार्थवादी) यूरोपीय शैली को बढ़ावा मिला. उनका मानना था कि भारतीय ललित कला में अयोग्य थे.
बंगाल स्कूल का उदय: इसके विरोध में अवनीन्द्रनाथ टैगोर और ई.बी. हैवेल ने 'बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट' की स्थापना की, जिसने भारतीय कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया.
शांतिनिकेतन का योगदान: 1919 में रवींद्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में 'कला भवन' की स्थापना की, जिसने कला को भारतीय समाज में सार्थक बनाने का प्रयास किया.
नए आयाम:
गगनेंद्रनाथ टैगोर ने घनवाद (Cubism) को अपनाया.
रवींद्रनाथ टैगोर ने भावनात्मक अमूर्त चित्रों से नई दिशा दी.
नंदलाल बोस, उनके शिष्य बिनोद बिहारी मुखर्जी और रामकिंकर बैज ने ग्रामीण जीवन और भारतीय महाकाव्यों को अपनी शैली में चित्रित किया.
रामकिंकर बैज की 'संथाल परिवार': उनके सामाजिक सरोकारों की मिसाल है.
जामिनी रॉय: लोककला से प्रेरणा लेकर अपनी सरल लेकिन विशिष्ट शैली बनाई और ग्रामीण संस्कृति को आधुनिकता से जोड़ा.
अमृता शेरगिल: पेरिस में शिक्षा प्राप्त की, यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय पारंपरिक विषयों का अद्वितीय संयोजन किया, जिससे भारतीय आधुनिक कला को नई दिशा मिली.
2. भारत में आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक कला
पृष्ठभूमि (द्वितीय विश्व युद्ध और बंगाल अकाल): अमृता शेरगिल की मृत्यु के बाद और 1947 में स्वतंत्रता के आसपास, द्वितीय विश्व युद्ध और 1943 के बंगाल अकाल जैसी घटनाओं ने लाखों लोगों को प्रभावित किया. इस त्रासदी ने कलाकारों को सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने के लिए प्रेरित किया.
कलकत्ता समूह का गठन (1943):
नेतृत्व: मूर्तिकार प्रोदोष दास गुप्ता.
प्रमुख सदस्य: निरोध मञ्जूमदार, परितोष सेन, गोपाल घोष और रथिन मोइत्रा.
उद्देश्य: ऐसी आधुनिक कला का विकास करना जो समय की सच्चाई को दर्शाए, भावुकता से मुक्त हो, और बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की पारंपरिक शैली से भिन्न हो.
कला की शैली और विशेषताएँ:
पुराने प्रतीकों और परंपराओं का त्याग.
रूप-रंग, बनावट और छाया जैसे तत्वों पर अधिक ज़ोर.
कला को केवल सौंदर्य तक सीमित न रखकर समाज से जोड़ने और सामाजिक संदर्भ में देखने का गंभीर प्रयास.
विचारधारा और समाजवाद:
बंगाल के युवा कलाकार मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे.
कला को वर्ग संघर्ष और सामाजिक असमानता को उजागर करने का माध्यम बनाया.
श्रमिक वर्ग, भूख, पीड़ा और सामाजिक अन्याय जैसे विषय प्रमुख थे.
प्रिंटमेकिंग (मुद्रण कला) का विकास:
कला को सस्ता बनाने और अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए प्रिंटमेकिंग को अपनाया गया.
चित्तप्रसाद: एचिंग, लीनोकट और शिलामुद्रण में माहिर.
सोमनाथ होरे: सामाजिक पीड़ा को प्रभावशाली रूप में चित्रित किया.
'हंग्री बंगाल' पैम्फलेट:
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चित्तप्रसाद को 1943 के बंगाल अकाल से प्रभावित गाँवों में भेजा.
उनके स्केच और चित्रों को 'Hungry Bengal' नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया, जो भयावह स्थिति का ऐतिहासिक प्रमाण है.
3. प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप ऑफ़ बॉम्बे और बहुमुखी भारतीय कला
गठन (1946): स्वतंत्रता के आसपास, बॉम्बे में 'प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप' का गठन हुआ.
प्रमुख कलाकार: फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा, एम.एफ. हुसैन, एस.एच. रज़ा जैसे कलाकार शामिल थे.
एफ.एन. सूज़ा: परंपरागत कला शिक्षण को चुनौती दी, महिलाओं के विषय में प्रयोग कर सौंदर्य की पारंपरिक धारणाओं को तोड़ा.
एम.एफ. हुसैन: भारतीय पौराणिक कथाओं, लघुचित्रों और लोककला से प्रेरणा लेकर आधुनिक शैली और भारतीय तत्वों का समन्वय किया. उनकी कला, जैसे 'मदर टेरेसा', भारतीय आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने लगी.
4. अमूर्तन - एक नई अवधारणा
हुसैन और रजा का भिन्न मार्ग:
एम.एफ. हुसैन: आकृतिमूलक शैली अपनाई, भारतीय विषयों को आधुनिक आकृतियों और रंगों के माध्यम से चित्रित किया.
एस.एच. रजा: अमूर्तन (Abstract) की दिशा में कार्य किया, विशेष रूप से अपने 'भू-दृश्य' (landscape) चित्रों के लिए प्रसिद्ध हुए. बाद में 'बिंदु' को अपनी कला का केंद्रीय तत्व बनाया, जो भारतीय दर्शन में एकात्मकता और सृजन की मूल चेतना का प्रतीक है.
अन्य कलाकारों की शैली:
गायतोंडे: भारत के पहले पूर्णतः अमूर्त चित्रकार, जिन्होंने रंग, बनावट और रूप के माध्यम से गहन आंतरिक अनुभूतियों को व्यक्त किया.
के.के. हेब्बार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता और कृष्ण खन्ना: आकृति और अमूर्तन के बीच संतुलन बनाते हुए कार्य किया.
पिलो पोचखानवाला और कृष्ण रेड्डी: प्रिंटमेकिंग और मूर्तिकला में अमूर्तन का सृजनात्मक प्रयोग किया.
चोलमंडलम और अमूर्तन का विस्तार:
के.सी.एस. पणिकर: चोलमंडलम कलाकार गाँव की स्थापना मद्रास के पास की, जो भारत का पहला स्वायत्त कलाकार समुदाय बना.
दृष्टि: अमूर्तन को केवल पाश्चात्य प्रभाव तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे भारतीय परंपरा से जोड़ा.
शामिल तत्व: तमिल और देवनागरी लिपि, फ़र्श की पारंपरिक सजावट, और ग्रामीण शिल्प.
अंतर्राष्ट्रीयता बनाम स्वदेशी कला (1970 के बाद):
अंतर्राष्ट्रीयता: कलाकारों ने पश्चिमी शैलियाँ जैसे घनवाद और अमूर्तन को अपनाया.
स्वदेशी कला: भारतीय परंपराओं की ओर लौटे.
अमरनाथ सहगल: मूर्तिकला में तार (metal wire) का प्रयोग करते हुए सामाजिक विषयों पर कार्य किया, प्रसिद्ध कृति 'Cries Unheard'.
मृणालिनी मुखर्जी: ‘वनश्री’ जैसी कृतियों में सुतली और प्राकृतिक रेशों का उपयोग कर अमूर्तन में नया योगदान दिया, लोक शिल्प और आधुनिक अभिव्यक्ति का समन्वय.
नव-तांत्रिक कला की अवधारणा:
कलाकार: बीरेन डे, जी.आर. संतोष और पणिकर.
प्रेरणा: यद्यपि पश्चिमी हिप्पी आंदोलन से प्रेरित, पर इसकी जड़ें भारतीय तांत्रिक दर्शन में थीं.
विषय: मंडल, यंत्र, और पुरुष-स्त्री ऊर्जा जैसे तांत्रिक प्रतीकों का प्रयोग.
संकलनवाद (Eclecticism):
कलाकार: रामकुमार, सतीश गुजराल, ए. रामचंद्रन और मीरा मुखर्जी.
विशेषता: भारतीय कला में पारंपरिक, आधुनिक और विदेशी शैलियों का सृजनात्मक मिश्रण प्रस्तुत किया, जिससे एक समृद्ध और विविधतापूर्ण कला भाषा विकसित हुई.
समूह 1890 (Group 1890):
नेतृत्व: जे. स्वामीनाथन (1963 में).
विचारधारा: कोई पूर्वनिर्धारित विचारधारा नहीं, चित्रों की बनावट, सतह और प्रयोगशीलता पर विशेष ज़ोर.
सदस्य: गुलाम मोहम्मद शेख, ज्योति भट्ट, हिम्मत शाह, अंबादास और जेराम पटेल.
प्रभाव: अल्पकालिक होने के बावजूद चोलमंडलम स्कूल जैसे कई संस्थानों को प्रभावित किया.
5. आधुनिक भारतीय कला का विश्लेषण (ट्रेसिंग)
पहचान और दिशा: भले ही कुछ विचार पश्चिम से ग्रहण किए हों, लेकिन भारतीय आधुनिक कला की पहचान और दिशा विशिष्ट भारतीय रही.
आधुनिकतावाद का आगमन: ब्रिटिश उपनिवेश काल में आया, जब कलाकारों ने परंपरागत अकादमिक यथार्थवाद को चुनौती दी.
प्रमुख कलाकार (1930 के दशक): गगनेंद्रनाथ टैगोर, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल को आधुनिक माना गया.
यूरोपीय बनाम भारतीय आधुनिकता:
यूरोप में: औद्योगिक क्रांति और तकनीकी विकास के बाद पनपी.
भारत में: राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ी थी.
विद्रोही दृष्टिकोण: एफ.एन. सूज़ा और स्वामीनाथन जैसे कलाकारों ने अपनाया.
स्वदेशी विचार: आनंद कुमारस्वामी ने बढ़ावा दिया.
बंगाल स्कूल और शांतिनिकेतन: अवनीन्द्रनाथ टैगोर, और बाद में नंदलाल बोस व अन्य शिष्यों ने भारतीय परंपराओं से प्रेरणा लेकर आधुनिक कला की भारतीय पहचान गढ़ी.
निष्कर्ष: भारत में आधुनिक कला पश्चिम की नकल नहीं, बल्कि चयनित सांस्कृतिक पुनराविष्कार का परिणाम थी.
6. नवीन कला आकृतियाँ और 1980 के दशक की आधुनिक कला
सामाजिक सरोकार और चित्रकला का विषय:
1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश की आज़ादी के बाद भारतीय कलाकारों ने सामाजिक समस्याओं पर अधिक ध्यान दिया.
कला में अब कथानक (narrative) और पहचान योग्य आकृतियाँ उभरने लगीं, जो आम जनता, संघर्ष, और सामाजिक यथार्थ को सीधे तौर पर दर्शाती थीं.
कला केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदना का माध्यम बन गई.
प्रमुख कलाकार और उनके योगदान:
बड़ौदा स्कूल: के.जी. सुब्रमण्यन, गुलाम मोहम्मद शेख और भूपेन खक्कर ने सामाजिक कहानियाँ और शहरी अनुभवों को स्थान दिया.
बंगाल के कलाकार: जोगन चौधरी, बिकाश भट्टाचार्जी और गणेश पाइन ने लोककला, कैलेंडर और लघु चित्रों की शैली को अपनाया.
छापाकार: ज्योति भट्ट, लक्ष्मा गौड़ और अनुपम सूद ने मानव और पशु आकृतियों के माध्यम से लिंग असमानता और सामाजिक समस्याओं को उजागर किया.
शहरी पलायन और नए विषय:
कलाकार: अर्पिता सिंह, नलिनी मालानी और सुधीर पटवर्धन.
विषय: शहरों में रहने वाले आम लोगों की कठिनाइयाँ, पलायन, और गरीबी.
उद्देश्य: शोषितों की दृष्टि से दुनिया को दिखाना और सामाजिक अन्याय व असमानता को सामने लाना.
बड़ौदा स्कूल और परिवर्तन (1980 के दशक):
कलाकारों का रुझान स्थानीय विषयों की ओर बढ़ा.
तथ्य, कल्पना और आत्मकथा को मिलाकर चित्रों की रचना की.
गुलाम मोहम्मद शेख: पुराने बाज़ारों, गलियों और इटली की सिएना शैली से प्रेरित दृश्य संयोजन को अपनाया.
के. जी. सुब्रमण्यन और सार्वजनिक कला:
शांतिनिकेतन से शिक्षा प्राप्त की.
भित्ति चित्रण और सार्वजनिक कला (public art) के प्रबल समर्थक रहे.
राजस्थानी कलाकारों से सीखी गई सैंड कास्टिंग तकनीक का उपयोग कर कई भित्ति चित्र बनाए.
प्रमुख उदाहरण: कला भवन की दीवार पर स्थित उनका भित्तिचित्र.
'प्लेस फॉर पीपल' (1981) प्रदर्शनी:
दिल्ली और बॉम्बे में आयोजित ऐतिहासिक प्रदर्शनी.
कलाकार: भूपेन खक्कर, गुलाम शेख, विवान सुंदरम, नलिनी मालानी, सुधीर पटवर्धन और जोगन चौधरी.
व्याख्या: कला समीक्षक गीता कपूर ने इसे भारतीय समकालीन कला में सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण उदाहरण बताया.
भूपेन खक्कर की विशिष्टता:
आम लोगों की ज़िंदगी को कला का केंद्र बनाया (नाई, घड़ीसाज़ जैसे रोज़मर्रा के पात्र).
संवेदनशील विषय: समलैंगिकता और मध्यवर्गीय नैतिकता जैसे सामाजिक रूप से उपेक्षित विषयों को भी अपनी कला में उठाया.
लोककला और लोकप्रिय कला की वापसी:
बड़ौदा के कलाकार: लोकशिल्प, ट्रक कला और कैलेंडर चित्रों जैसी लोकप्रिय शैलियों को अपनाकर जनसंस्कृति से जुड़ाव स्थापित किया.
मुंबई के कलाकार: फिल्म होर्डिंग्स, विज्ञापन और फोटोग्राफी से प्रेरणा लेकर अपनी कला को अधिक शहरी, दृश्यात्मक और सामयिक संदर्भों से जोड़ा.
नई तकनीक और शैली:
जल रंग का उपयोग कर फोटोग्राफ जैसी सजीव आकृतियाँ बनाईं.
पारंपरिक "आधुनिक कला" से अलग, अधिक प्रयोगात्मक और द्विअर्थी (ambiguous) अभिव्यक्ति.
7. न्यू मीडिया आर्ट - 1990 के दशक से
1990 के दशक के बाद का समय:
उदारीकरण और वैश्वीकरण का प्रभाव मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में दिखा.
सूचना तकनीक का तेजी से विकास, सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं में बदलाव.
कला में नई प्रतिक्रियाएँ, आधुनिक विषय, और वैश्विक संदर्भों का समावेश बढ़ा.
पारंपरिक माध्यमों में बदलाव:
पारंपरिक चित्रकला और मूर्तिकला का आकर्षण कम हुआ.
नए माध्यम: वीडियो आर्ट, फोटोग्राफी और संस्थापन कला (Installation Art) को अपनाया गया, जिससे कला अधिक प्रयोगात्मक और समकालीन बन गई.
संस्थापन कला की विशेषताएँ:
एक मल्टीमीडिया कला, जिसमें वीडियो, पेंटिंग, मूर्तियाँ, फोटोग्राफी और टेलीविज़न जैसे विभिन्न माध्यमों को एक साथ जोड़ा जाता है.
पूरे हॉल या स्थान में फैली होती है.
उद्देश्य: दर्शक की पाँचों इंद्रियों को सामूहिक अनुभव कराना (देखने, भाग लेने और महसूस करने का अवसर).
प्रमुख संस्थापन कलाकार:
नलिनी मलानी (मुंबई) और विवान सुंदरम (दिल्ली).
विषय: सामाजिक अन्याय, स्त्री विमर्श, युद्ध, विस्थापन और राजनीतिक अस्थिरता जैसे गंभीर और विचारोत्तेजक मुद्दे.
फोटोग्राफी और 'फ़ोटोयथार्थवाद':
फोटोग्राफी को समाज के यथार्थ को दिखाने का एक प्रभावशाली माध्यम माना गया.
फोटोयथार्थवाद: कलाकार तैल या ऐक्रिलिक रंगों से ऐसी पेंटिंग बनाते हैं जो फोटोग्राफ जैसी सटीक दिखती हैं.
प्रमुख उदाहरण: अतुल डोडिया की कृति "बापू".
प्रमुख फोटोयथार्थवादी कलाकार:
टी.वी. संतोष और शिबू नटसन.
विषय: सांप्रदायिक हिंसा और शहरी बदलाव जैसे समाज के ज्वलंत मुद्दे.
समाज के हाशिए पर मौजूद समूहों को चित्रित करने वाले कलाकार:
शीबा चाची, रवि अग्रवाल और अतुल भल्ला.
विषय: महिला साध्वी, LGBTQ समुदाय, प्रदूषित नदियाँ, और भीड़-भाड़ वाले शहर.
समकालीन कला की विशेषताएँ:
लगातार परिवर्तनशील और तकनीकी रूप से सशक्त.
नई मीडिया: डिजिटल पेंटिंग, वीडियो आर्ट, और सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग.
अधिक इंटरएक्टिव, ग्लोबल, और दर्शकों से जुड़ने वाली बन गई है.
भारत में समकालीन कला का विकास:
सभी बड़े शहरों में कला दीर्घाएँ और कलाकार समुदाय सक्रिय हैं.
कैटलॉग्स (सूचीपत्रों) में कृतियों का दस्तावेजीकरण, प्रदर्शन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान.
8. प्रमुख आधुनिक भारतीय कलाकृतियाँ
मध्यकालीन संतों का जीवन (1946-47) - बिनोद बिहारी मुखर्जी:
माध्यम: भित्ति चित्र (फ्रेस्को बूनो पद्धति).
स्थान: हिंदी भवन की तीन दीवारों पर (लगभग 23 मीटर).
विषय: रामानुज, कबीर, तुलसीदास, सूरदास जैसे महान संतों की शिक्षाएँ.
शैली: कम रेखाओं का प्रयोग, प्रत्येक आकृति लयात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़ी है. भारतीय जीवन की सहिष्णुता और सामंजस्य की परंपरा को व्यक्त करता है.
मदर टेरेसा (1980 के दशक) - एम.एफ. हुसैन:
विषय: मदर टेरेसा की संत जैसी छवि, शिशु को हाथों में पकड़े हुए.
प्रेरणा: माइकल एंजेलो की कृति 'पिएटा' से प्रेरित.
शैली: सपाट आकार आधुनिकता को दर्शाते हैं, कलाकार ने संकेतों का उपयोग किया ताकि दर्शक स्वयं कहानी का सार समझ सकें. मदर टेरेसा के असहायों के उपचार और पोषण की ओर इशारा करता है.
हल्दी ग्राइंडर (1940) - अमृता शेरगिल:
विषय: भारतीय महिलाओं को पारंपरिक रूप से हल्दी पीसते हुए.
रंग और शैली: चमकदार और नम रंगों का उपयोग, यूरोपीय आधुनिक कला और उत्तर भारत के लघुचित्र शैली से प्रेरित.
कलात्मकता: रंग विरोधी संयोजन से आकृतियों को उकेरा (बसोहली शैली की याद दिलाते हैं). अर्द्ध-अमूर्त स्वरूप, भू-दृश्य की गहराई के बजाय सपाट आकार का चित्रण.
फेयरी टेल्स फ्रॉम पूर्व पल्ली (1986) - के. जी. सुब्रमण्यन:
माध्यम: एक्रेलिक शीट पर जल और तैलीय रंगों का प्रयोग.
विषय: एक काल्पनिक भू-दृश्य जहाँ पक्षी और जानवर मनुष्यों से कंधे मिलाते हैं, असामान्य पेड़ पत्तियों की बजाय पंख उगाते हैं.
शैली: रेखीय, रंगों का संयोजन प्राकृतिक (धूसर, हरे और भूरे).
प्रेरणा: महिला और पुरुष की आकृतियाँ कालीघाट लोक कला की याद दिलाती हैं, आकृतियाँ सपाट धरातल पर व्यवस्थित हैं (आधुनिक कला का प्रतिनिधित्व).
व्हर्लपूल (1963) - कृष्णा रेड्डी:
माध्यम: छापाचित्र (विस्कोसिटी प्रिंटिंग पद्धति का उदाहरण), स्टेनले विलियम हेटर के साथ विकसित.
रंग: नीले रंग के विभिन्न तानों से आकर्षक संयोजन, रंग एक-दूसरे में मिश्रित नहीं होते.
विषय: जल की तरंगों और जल-तेल की परस्पर अंतर्क्रिया को दर्शाता है.
तकनीक: विभिन्न रंगों को अलसी के तेल के साथ मिलाया जाता है ताकि रंग अलग-अलग बने रहें.
संग्रह: न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट.
चिल्ड्रन (1958) - सोमनाथ होर:
माध्यम: ग्राफ़िक प्रिंट (एचिंग).
विषय: 1943 के बंगाल अकाल के प्रभाव, अकाल से त्रस्त बच्चों की त्रासदी, कुपोषित आकृतियाँ, गहरी पीड़ा और मलेरिया के लक्षण.
शैली: आकृतियाँ बिना पृष्ठभूमि या परिवेश के रेखाओं में सजीव रूप से प्रस्तुत की गई हैं, जिनमें हड्डियाँ और शरीर की संरचना स्पष्ट है.
प्रतीकात्मकता: समाज के सबसे कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. अन्य कलाकृतियों (पीजेंट्स मीटिंग और मदर विद चाइल्ड) में भी संवेदनशील विषय.
देवी (1970) - ज्योतिभट्ट:
माध्यम: एचिंग.
विषय: देवी की छवि को लोक परंपरा और तांत्रिक दर्शन के माध्यम से पुनः संदर्भित करता है.
शैली: देवी की आवक्ष छवि एक प्रतिमा के रूप में, रेखीय अंकन और लोक अभिप्राय का स्पष्ट चित्रण.
कलात्मकता: पारंपरिक कलाओं और आधुनिकता के बीच कोमल संबंध, गतिशीलता और स्थायित्व के सिद्धांत के रूप में शक्ति.
अन्य प्रसिद्ध चित्र: कल्पवृक्ष, सीता का तोता और स्केटर्ड इमेज अंडर द वार्म स्काई.
ऑफ़ वाल्स (1982) - अनुपम सूद:
माध्यम: एचिंग चित्र (ज़िंक प्लेट से कागज़ पर छापा गया).
पृष्ठभूमि: स्लेड स्कूल ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स में छापाचित्र कला का अध्ययन, समाज के हाशिये पर रह रहे लोगों की समस्याओं को कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया.
विषय: एक स्त्री की रिक्त मुखाकृति के माध्यम से दुख और विषाद को दर्शाया गया है. एक नारी फुटपाथ पर अकेली बैठी है, अग्रभूमि में एक सोते हुए गरीब व्यक्ति.
भाव: विषाद की गहरी भावना को व्यक्त करता है.
रूरल साउथ इंडियन मेन-वुमन (2017) - लक्ष्मा गौड़:
माध्यम: एचिंग चित्र.
प्रेरणा: शिक्षक के.जी. सुब्रमण्यन की प्रयोगधर्मी दृश्य परंपराओं और शास्त्रीय लोक संस्कृति से.
विषय: मानवाकृतियाँ पृष्ठभूमि में पेड़ के साथ अंकित की गई हैं, ग्रामीण जीवन की स्मृतियाँ.
शैली: ग्रामीण जीवन को शहरी शालीनता के साथ प्रस्तुत, मनोवैज्ञानिक आभा और कल्पना के मिश्रण से यथार्थवादी अवयवों का चित्रण.
कलात्मकता: ग्राम्य गीतों को कृषक पुरुषों और स्त्रियों द्वारा चित्रित किया गया है, कठपुतली जैसी आकृतियाँ, शैलीगत सौम्यता और यथार्थवाद.
अन्य प्रमुख कलाकृतियाँ: "वुमन," "मेन," "लैंडस्कैप ऑफ़ टर्की," और "शियान चाइना."
ट्राइम्फ़ ऑफ़ लेबर (1959) - देवी प्रसाद राय चौधरी:
माध्यम: विशालकाय कांस्य मूर्तिशिल्प.
स्थान: चेन्नई के मरीना तट पर स्थापित.
विषय: चार पुरुष आकृतियाँ एक चट्टान को हिलाने का प्रयास करते हुए, राष्ट्र निर्माण में मानवीय श्रम के महत्व और योगदान को दर्शाता है.
कलात्मकता: अजेय पुरुष कठिन और दृढ़संकल्प से प्राकृतिक शक्ति से संघर्ष कर रहे हैं. देवी प्रसाद को श्रम की प्रकृति और मांसपेशियों के प्रति विशेष आकर्षण था, शारीरिक श्रम की कठिनता का प्रस्तुतीकरण. श्रमिकों की मजबूत मांसपेशियाँ, नसें और मांसलता का सटीक चित्रण.
विशेषता: आकृतियाँ इस प्रकार से संयोजित की गई हैं कि दर्शक शिल्प को चारों ओर से घूमकर देख सकते हैं, संवादात्मक रूप. श्रमिकों के योगदान को सार्वजनिक स्थान पर ऊँचे अधिष्ठान पर प्रतिष्ठित कर दिखाता है, जो परंपरागत राजा या ब्रिटिश गणमान्यों की प्रतिमाओं से विपरीत है.
संथाल फैमिली (1937) - रामकिंकर बैज:
माध्यम: विशालकाय मूर्तिशिल्प (सीमेंट का प्रयोग).
विषय: एक संथाल पुरुष अपने बच्चों को एक डंडे से जोड़ी गई दोहरी टोकरी में ले जाता हुआ, साथ ही उसकी पत्नी और एक कुत्ता भी. पलायन यात्रा को दर्शाता है.
स्थान: शांतिनिकेतन के कलाभवन प्रांगण में रखा गया है.
महत्व: भारत का पहला आधुनिक जनमूर्ति शिल्प. दर्शक चारों ओर से देख सकते हैं, स्मारकीय प्रभाव.
सामग्री का चयन: सीमेंट का प्रयोग, जो पारंपरिक सामग्री (संगमरमर, लकड़ी, पत्थर) से अलग है और आधुनिकीकरण का प्रतीक है.
क्राइज़ अन हर्ड (1958) - अमरनाथ सहगल:
माध्यम: कांस्य मूर्तिशिल्प.
विषय: तीन अमूर्त आकृतियाँ (छड़ी जैसी और सपाट लयबद्ध समतल), एक परिवार (पति, पत्नी और बच्चे) के रूप में समझा जा सकता है, जो अपनी बाहों को ऊपर उठाए और सहायता के लिए चीखते हुए दिखाए गए हैं.
प्रतीकात्मकता: सहायता की आवश्यकता और विवशता को स्थायी आकार में बदला है. समाजवादी दृष्टिकोण से देखा जा सकता है, उन लाखों निस्सहाय परिवारों को श्रद्धांजलि जिनकी चीखें नहीं सुनी जातीं.
संग्रह: राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली.
गणेश (1970) - पी. वी. जानकीराम:
माध्यम: ऑक्सीकृत ताँबे का मूर्तिशिल्प.
विषय: गणेश की आकृति को संगीत वाद्ययंत्र वीणा बजाते हुए.
तकनीक: ताँबे की धातुशीट का उपयोग, पीटकर अवतल सतह बनाई, रैखिक विवरणों को वेल्ड किया.
प्रेरणा: दक्षिण भारत के प्राचीन मंदिरों के मूर्तिशिल्प से प्रेरित.
शैली: पारंपरिक शास्त्रों और विषयों के अनुसार, रैखीय और अलंकारिक तत्व धार्मिक चिंतन को आमंत्रित करते हैं. लोक और पारंपरिक शिल्प कौशल का उत्तम मिश्रण.
संग्रह: एन.जी.एम.ए., दिल्ली.
वनश्री (1994) - मृणालिनी मुखर्जी:
विषय: 'वनश्री' (जंगल की देवी) नामक शिल्प कार्य.
सामग्री: असामान्य सामग्री, विशेष रूप से सुतली के रेशों और जूट के रेशों से बनाया गया है.
शैली: जटिल गाँठों और बुने हुए आकार के माध्यम से स्मारकीय रूप.
कलात्मकता: चेहरे और आंतरिक अभिव्यक्ति के साथ शक्तिशाली प्राकृतिक देवत्व की उपस्थिति को उकेरा गया है.
महत्व: रेशों से बने कार्यों ने हाल ही में उनकी कला की मौलिकता और साहस को विशेष पहचान दिलाई है.
0 टिप्पणियाँ