भारत की जीवंत कला परंपराएँ: लोक कला और शिल्प

 भारत में पारंपरिक कला की एक समृद्ध और विविध धारा रही है, जो गाँवों, शहरों, रेगिस्तानों और पहाड़ियों तक फैली हुई है. ये कलाएँ हमेशा से जनमानस द्वारा अपनाई जाती रही हैं और स्वदेशी ज्ञान का हिस्सा रही हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही हैं. इन कलाओं में लोक कला, शिल्प, जनजातीय कला और संस्कार कला जैसी विभिन्न श्रेणियाँ शामिल हैं. प्राचीन काल से ही भारत में भित्ति चित्र, मिट्टी के बरतन (टेराकोटा) और कांस्य कलाकृतियाँ मौजूद रही हैं. खास बात यह है कि इन उत्कृष्ट कलाकृतियों को अक्सर अज्ञात कलाकारों ने अपने आसपास की सामग्री और तकनीक से बनाया है, जिन्होंने कोई औपचारिक कला शिक्षा नहीं ली थी. आज भी ये कलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में जीवित हैं और एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं. स्वतंत्रता के बाद, हस्तकला उद्योग का पुनरुद्धार हुआ और यह एक संगठित व्यावसायिक क्षेत्र बन गया.


1. चित्रकारी परंपरा (लोक कला)

भारत में विभिन्न लोक चित्रकलाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • मिथिला या मधुबनी पेंटिंग (बिहार)

  • वरली पेंटिंग (महाराष्ट्र)

  • पिथोरो पेंटिंग (उत्तरी गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश)

  • पाबूजी की फड़ पेंटिंग (राजस्थान)

  • नाथद्वारा की पिछावई (राजस्थान)

  • गोंड और सांवरा पेंटिंग (मध्य प्रदेश)

  • पटचित्र (ओडिशा और बंगाल)

यहाँ उनमें से कुछ पर विस्तृत चर्चा की गई है:

अ. मिथिला कला (मधुबनी चित्रकला)

  1. परिचय:

    • भारत की एक प्रसिद्ध समकालीन लोक चित्रकला परंपरा, जिसका नाम मिथिला क्षेत्र (प्राचीन नाम: विदेह) पर आधारित है.

    • मुख्य रूप से बिहार के मधुबनी ज़िले में विकसित हुई, इसलिए इसे मधुबनी चित्रकला भी कहते हैं.

    • पहचान: सजीव रंगों, ज्योमेट्रिक डिज़ाइनों और लोक विषयों से होती है.

  2. उत्पत्ति:

    • परंपरा सदियों पुरानी है, विशेष रूप से शादी-ब्याह के अवसर पर घर की दीवारों को सजाने से जुड़ी है.

    • माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति राम और सीता के विवाह के समय हुई थी, जब राजा जनक ने नगर को सजाने के लिए इसका प्रयोग करवाया.

    • यह सौंदर्य के साथ-साथ धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी है.

  3. चित्रण के स्थान:

    • बाहरी आँगन: महिलाएँ, पशु, घरेलू काम (पानी लाना, अनाज साफ करना).

    • पूर्वी भाग: कुलदेवी का स्थान, देवी काली आदि की छवियाँ.

    • कोहबर घर (भीतरी कमरा): विवाह चित्र, खिला हुआ कमल, देवी-देवताओं के चित्र.

    • पारिवारिक देवस्थान (बरामदा): गृह देवता, कुल देवता का चित्रण.

  4. विषय-वस्तु:

    • धार्मिक कथाएँ: रामायण, भागवत पुराण, शिव-पार्वती, राधा-कृष्ण की रासलीला, दुर्गा और काली.

    • प्राकृतिक तत्व: पक्षी, फूल, जानवर, मछली, साँप, सूर्य और चंद्रमा.

    • प्रतीकात्मक अर्थ: प्रेम, जुनून, उर्वरता, कल्याण, समृद्धि और अनंत काल.

  5. रंग और उपकरण:

    • ब्रश: महिलाएँ बाँस की टहनी के सिरे पर कपास, चावल का भूसा या रेशे बाँधकर बनाती हैं.

    • प्राकृतिक रंग: फालसा, कुसुम फूल, बिल्व पत्ता, काजल और हल्दी जैसे स्रोतों से बनाए जाते हैं.

  6. आधुनिक प्रयोग:

    • आज दीवारों के अलावा कपड़ों, कागज़, बरतनों और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर भी इसका उपयोग हो रहा है, जिससे यह कला वाणिज्यिक रूप में लोकप्रिय हुई है.

    • यह कलाकारों को रोज़गार दे रही है और परंपरा को आधुनिक जीवन से जोड़ रही है.

  7. शैली की विशेषता:

    • इसमें रिक्त स्थान (empty space) नहीं छोड़ा जाता. हर कोना, हर भाग किसी न किसी चित्र, डिज़ाइन या प्रतीक से भरा होता है, जिससे पूरी रचना सघन और सजीव लगती है.

ब. वरली चित्रकला

  • समुदाय: उत्तरी महाराष्ट्र के पश्चिमी तट और ठाणे ज़िले के सह्याद्री क्षेत्र में बसा वरली समुदाय.

  • विशेषता: पारंपरिक चौक चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है.

  • उपयोग: विवाहित महिलाएँ विशेष अवसरों पर चौक बनाती हैं, जो प्रजनन, फ़सल और शादी के रीति-रिवाजों से संबंधित होती है.

  • देवी: चौक देवी माँ पालघाट (प्रजनन की देवी) और कंसारी देवी की आकृति पर आधारित होती है. कंसारी देवी को एक छोटे फ्रेम में नुकीले कड़ी से सजाया जाता है, जो हरियाली देवता का प्रतीक है.

  • विषय-वस्तु: रोज़मर्रा की गतिविधियाँ (खेती, मछली पकड़ना) और पौराणिक कहानियाँ.

  • सामग्री: पारंपरिक रूप से चावल के आटे से घरों की दीवारों पर बनाई जाती है.

स. गोंड चित्रकला

  • समुदाय: मध्य प्रदेश का गोंड समुदाय.

  • विषय: प्रकृति की पूजा प्रमुख है.

  • चित्रण: जानवरों, मनुष्यों और वनस्पतियों के रंगीन चित्र, ज्यामितीय आकार के धार्मिक चित्र झोपड़ियों की दीवारों पर.

  • विशेष उदाहरण: कृष्ण को गायों और गोपियों से घिरा हुआ दर्शाया जाता है, जहाँ गोपियाँ सिर पर घड़ा रखकर कृष्ण को भेंट देती हैं.

द. पिठोरो चित्रकला

  • समुदाय: गुजरात के पंचमहल क्षेत्र के राठवा भीलों और मध्य प्रदेश के झाबुआ में.

  • उपयोग: विशेष अवसरों या धन्यवाद उत्सवों पर घरों की दीवारों पर बनाए जाने वाले भव्य रंगीन भित्ति चित्र.

  • विषय-वस्तु:

    • ऊपरी खंड: देवताओं को घोड़े पर सवार दिखाया जाता है, जो राठवाओं के ब्रह्मांड का प्रतीक हैं (स्वर्गीय और पौराणिक प्राणियों की दुनिया).

    • निचला खंड: पिठोरो की शादी की बारात, गौण देवता, राजाओं, देवियों और घरेलू जानवरों को पृथ्वी पर दर्शाया जाता है.

य. पटचित्र

  1. परिचय:

    • भारत की एक पारंपरिक चित्रकला शैली, जो कपड़े, कागज़ या ताड़ के पत्तों पर बनाई जाती है.

    • प्रचलन: पूर्वी भारत (ओडिशा, बंगाल, बिहार, झारखंड) और पश्चिमी भारत (गुजरात, राजस्थान) में.

    • विभिन्न नाम: पट, पचीसी, फड़ आदि.

    • विषय-वस्तु: धार्मिक कथाएँ, लोककथाएँ और सांस्कृतिक प्रतीक.

  2. बंगाल का पटचित्र:

    • कलाकार: पटुआ कलाकार कपड़े पर चित्र बनाकर उन्हें पट (scroll) के रूप में तैयार करते हैं और घूम-घूम कर कहानियाँ सुनाते हैं.

    • परंपरा: मौखिक कथा और चित्रकला का मेल.

    • क्षेत्र: मुख्यतः पश्चिम बंगाल के मिदनापुर, बीरभूम, बांकुरा और कुछ बिहार-झारखंड के क्षेत्रों में.

    • प्रस्तुति: कलाकार पट को खोलते हुए चित्रों को दिखाते हैं और 3-4 कहानियाँ सुनाते हैं, दर्शक उन्हें नकद या उपहार देते हैं.

  3. ओडिशा का पटचित्र (पुरी पट):

    • संबंध: पुरी (ओडिशा) की मंदिर परंपरा से जुड़ी प्रसिद्ध शैली.

    • विषय: जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विभिन्न पोशाक रूप, अंसारा पट्टी (गर्भगृह से हटाए गए देवी-देवताओं के प्रतीक चित्र), और जात्रा पटी (तीर्थयात्रियों के लिए स्मृति-स्वरूप चित्र).

    • अन्य चित्र: कांची-कावेरी पटा और थिया-बड़हिया पटा जैसे चित्र पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं. मंदिरों, उत्सवों और मूर्तियों का भी चित्रण होता है.

  4. चित्रण की प्रक्रिया (पटचित्र):

    • सामग्री: सूती कपड़ा, जिसे पहले चूना (सफेद पत्थर) और इमली के बीज की गोंद से तैयार किया जाता है.

    • चरण:

      1. पहले किनारे (आउटलाइन) बनाए जाते हैं.

      2. फिर आकृति बनाई जाती है.

      3. अंत में उसमें सपाट रंग भरे जाते हैं.

      4. तैयार चित्र को कोयले की आग पर सुखाया जाता है.

      5. उसे लाह से चमक दी जाती है (टिकाऊपन और आकर्षण के लिए).

  5. ताड़ पत्र चित्रण:

    • सामग्री: खर-ताड़ नामक विशेष ताड़ के पत्ते.

    • तकनीक: तूलिका के स्थान पर लोहे की बारीक कलम से चित्रों को उकेरा जाता है.

    • उकेरने के बाद उसमें स्याही और रंग भरे जाते हैं.

    • इन पत्तों पर चित्र के साथ कहानियाँ या लेख भी लिखे जाते हैं.

  6. लोक या परिष्कृत कला?:

    • यह एक विवादास्पद विषय है कि ताड़ पत्र चित्रकला लोक कला है या परिष्कृत (क्लासिकी) कला.

    • इसकी जड़ें पूर्वी भारत की दीवार चित्रण परंपरा और सचित्र पांडुलिपियों से जुड़ी मानी जाती हैं.

    • इसे लोक एवं शास्त्रीय कला के बीच की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है.

फ. राजस्थान की फड़ लोक कला

  • क्षेत्र: राजस्थान के भीलवाड़ा क्षेत्र में रहने वाले समुदायों द्वारा.

  • स्वरूप: लंबे, क्षैतिज कपड़े के पटचित्र.

  • विषय: लोक देवताओं और वीर नायकों का चित्रण (मुख्यतः पशुधन की सुरक्षा).

  • प्रस्तुति: भोपों द्वारा यात्रा के दौरान इन चित्रों को दीपक से प्रकाशित किया जाता है और गायन के साथ कथा प्रदर्शित की जाती है.

  • कलाकार: पारंपरिक रूप से 'जोशीस' जाति के चित्रकार बनाते हैं, जो राजदरबार में काम करते थे.


2. मूर्तिकला परंपरा

मूर्तिकला परंपरा में मिट्टी (मृण्मूर्ति), धातु और पत्थर से मूर्तियाँ बनाने की लोकप्रिय परंपराएँ शामिल हैं. देशभर में ऐसी अनेक लोक कला परंपराएँ हैं. उनमें से कुछ पर यहाँ चर्चा की गई है.

अ. डोकरा कास्टिंग

  1. परिचय:

    • नाम: डोकरा या गढ़वा.

    • प्रकार: पारंपरिक और लोकप्रिय धातु मूर्तिकला परंपरा.

    • क्षेत्र: मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ (बस्तर), मध्य प्रदेश, ओडिशा, और पश्चिम बंगाल (मिदनापुर).

    • तकनीक: ‘सरे पर्दु’ (lost wax casting) तकनीक. मोम की आकृति बनाकर उसे मिट्टी से ढका जाता है, फिर गर्म करके मोम को निकालकर पिघली हुई धातु डाली जाती है.

    • विषय: लोक जीवन, देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों और दैनिक जीवन के दृश्यों को मूर्तियों में ढालती है.

  2. गढ़वा कौन हैं?:

    • ‘गढ़वा’ का अर्थ है "गढ़ने वाला" या "आकार देने वाला".

    • ये परंपरागत धातु कलाकार होते हैं जो घरेलू बरतन, देवताओं की मूर्तियाँ, और अनुष्ठानिक चढ़ावे (साँप, हाथी, घोड़े) बनाते हैं.

    • आधुनिक समय में सजावटी वस्तुएँ भी तैयार करते हैं.

  3. निर्माण की विधि (चरणवार):

    • आकृति बनाना: काली मिट्टी + चावल भूसी से आकृति बनाई जाती है, फिर सुखाकर गोबर-मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है.

    • मोम की सजावट: साल के पेड़ की राल से बनाई गई पतली पट्टियाँ आकृति पर चढ़ाई जाती हैं. आँख, नाक, गहनों आदि का सजावटी विवरण बनाया जाता है.

    • ढलाई की तैयारी: पूरी आकृति पर 3 परतें लगाई जाती हैं (महीन मिट्टी, मिट्टी+गोबर, चींटी की मिट्टी+भूसी). नीचे एक पात्र (receptacle) जोड़ा जाता है.

    • पिघलाना और ढालना: धातु (कांसा आदि) को अलग पात्र में भट्ठी में पिघलाया जाता है (~2–3 घंटे तक गर्म हवा). जब धातु पिघल जाए, तो उसे साँचे में डाला जाता है. मोम (राल) वाष्पित होकर जगह खाली कर देता है.

    • अंतिम चरण: साँचा ठंडा होने के बाद मिट्टी तोड़ी जाती है, और डोकरा धातु मूर्ति बाहर निकलती है.

  4. विशेषताएँ (फीचर्स):

    • पूरी तरह से हस्तनिर्मित, जिससे हर मूर्ति अद्वितीय बनती है.

    • जटिल डिज़ाइन, पारंपरिक रूप और बारीक हस्तकला.

    • विषय: स्थानीय लोकदेवताओं, जानवरों, और रोजमर्रा की जीवनशैली से जुड़ा.

  5. वर्तमान में डोकरा शिल्प:

    • परंपरागत उपयोग में कमी आने पर, कारीगरों ने सजावटी और कलात्मक वस्तुएँ बनानी शुरू कीं.

    • आज डोकरा उत्पाद निर्यात किए जाते हैं और कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में प्रदर्शित होते हैं.

ब. मृण्मूर्ति (टेराकोटा)

  • प्रचलन: भारतीय कला में सबसे प्रचलित और सर्वव्यापी मूर्तिकला रूप.

  • कलाकार: आमतौर पर कुम्हारों द्वारा बनाई जाती हैं.

  • उपयोग: स्थानीय देवताओं को चढ़ाने, अनुष्ठानों और त्योहारों में.

  • सामग्री: नदी किनारे या तालाबों पर पाई जाने वाली मिट्टी से बनाई जाती हैं.

  • प्रक्रिया: पकाकर स्थायित्व प्रदान किया जाता है.

  • क्षेत्र और प्रकार: मणिपुर, असम, कच्छ, तमिलनाडु, गंगा के मैदान, और मध्य भारत में अलग-अलग प्रकार की मृण्मूर्तियाँ बनाई जाती हैं.

  • रूप और उद्देश्य: आमतौर पर देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों या कीड़ों के रूप में होती हैं.

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