सृजन सत्य के नोबेल रबीन्द्र

किसी भी कला से संबंधित विषय की जानकारी के लिए मात्र यह जानना जरूरी नहीं कि हम यह जाने की इस काल में कलाकारों ने क्या किया,बल्कि यह भी जानना आवश्यक है कि वह किन बातों को आदर्श और श्रेष्ठ समझते थे। किसी काल विशेष के कलाबोध को समझने का यही उपाय है कि हम उस काल विशेष की उन बातों को जाने जिस पर कलाकारों ने काम किया। उनकी संपूर्ण कला को समझने के लिए आवश्यक है कि हम उन चित्रकारों, मूर्तिकारों और उन कृतियों की जानकारी प्राप्त करें जो उस काल विशेष में आदर्श अनुकरणीय समझी गई। वर्ष 1903 में भारतीय कला बंगाल कला आन्दोलन के रूप में आधुनिक कला के साथ एक नए काल खंड में प्रवेश कर गई। जिसमें रबीन्द्रनाथ टैगोर का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
5 मई, 1861 को कोलकाता के ठाकुरबाड़ी स्थान में जन्मे टैगोर बंगाल पुनर्जागरण के दौरान एक कवि, लेखक, नाटककार, संगीतकार, दाशर्निक एवं समाज सुधारक के साथ-साथ चित्रकार के रूप में सक्रिय थे। उन्होंने 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरम्भ में प्रासंगिक आधुनिकतावाद के साथ बंगाली साहित्य और संगीत के साथ-साथ भारतीय कला को नया आकार दिया। टैगोर की रचनात्मक उर्जा इससे जान पड़ती है कि उम्र के उस पड़ाव पर उन्होंने चित्र रचना आरम्भ किया जब वह 60 वर्ष की अवस्था पार कर गये थे। उनके चित्रों में दिखता है, कलाकार जब सत्य और सौंदर्य के संयोजन से अपनी कला का निर्माण करता है, तब वह केवल वास्तविक दुनिया की संरचना नहीं, बल्कि एक कलात्मक रचना रचता है। जिसमें वैचारिक सौंदर्य अभिव्यक्त होती है।
टैगोर सृजन में सत्य की अनुभूति को स्वीकार भी करते थे। उनके अनुसार, सृजन की सुंदरता सत्य की अनुभूति, व्यक्तिगत अनुभव, ज्ञान, भावनाओं तथा सौंदर्यबोध आदि पर निर्भर करती है। नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय महान रचनाकार रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को राष्ट्रगान दिया। 8 वर्ष की बाल अवस्था में ही पहली कविता लिखने वाले इस प्रतिभाशाली शख्स ने कई लघु कथाएं, उपन्यास, निबंध, यात्रा वृतांत, नाटक और हजारों गीत लिखे।
टैगोर की कलात्मक यात्रा यह बताती है कि जब कोई सृजन की सुंदरता की सराहना कर सकता है और सौंदर्य के दृष्टिकोण से सृजन की सच्चाई का एहसास कर सकता है, तो उसे पूर्णता के आनंद का भी एहसास होता है।
यूरोप, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रदर्शनी प्रदर्शित करने वाले संभवत: वह पहले भारतीय कलाकार थे। अपने चित्रों में सरल बोल्ड रूप और लयबद्ध आकार का प्रयोग करने वाले रबीन्द्रनाथ टैगोर के आरम्भिक चित्र अत्यधिक कल्पनाशील थे। 1930 के दशक के दौरान बनाए गए चित्रों में, उन्होंने मानवीय चेहरे को कई रूपों में चित्रित किया। मानव चेहरों की यह निरंतरता व्यक्ति उनकी रुचि को प्रदर्शित करता है। जैसे-जैसे उनका कला कौशल विकसित हुआ, उनके सामने आए चेहरों की परछाइयाँ चित्रित चेहरों के साथ प्रतिध्वनि और विस्तार प्रदान करने लगीं। टैगोर ने लैंडस्केप पेंटिंग भी रचीं, हालांकि उनके काम छोटे-छोटे आकार के ही रहे हैं। उन्होंनें कला की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी किंतु वह प्राय: ऐसे आकार रचने के लिए प्रेरित रहे जो प्रयोगशील होने के साथ-साथ अभिव्यंजक भी रहे।
कभी-कभी अपने चित्रों के द्वारा स्वंय को संदर्भित करते हुये रबीन्द्रनाथ दृश्य कला के प्रति अधिक संवेदनशील रहे जिसे उन्होंने कई रूपों में रचा। अपने परिदृश्य चित्रों में शाम की रोशनी में नहाए हुए प्रकृति को उज्ज्वल आकाश के साथ चित्रित करते टैगोर ने अंत प्रेरणा से जो रचा उसमें एक नई कला आविर्भाव है। टैगोर की कृतियों में रंग, रंगीन स्याही और क्रेयॉन आदि का प्रयोग और उनके जीवन की धारणाओं तथा गहराई से जुड़ा हुआ है। जिसमें वह फूल और पत्तियों को रगड़कर भी कृतियों में रंग भरते थे। अपने कामों में वे शुद्ध रूप से मौलिक रहकर शीर्षक मुक्त चित्रों से दर्शकों को अपनी समझ और अर्थ उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास करते थे। उनकी कल्पना के अनुसार कला आसन्न जीवन का एक तरीका है। इसे मनुष्य अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रकृति, अन्य मनुष्यों और अपने परिवेश से जुड़कर प्राप्त कर सकता है।
एक संन्यासी प्रवृत्ति के व्यक्ति होने के कारण उनका मानना था कि कला का लक्ष्य दुनिया और आत्मा के बीच संबंध को साकार करना होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘कला मनुष्य की रचनात्मक आत्मा की पुकार की प्रतिक्रिया है ’ कला का उद्देश्य परम वास्तविकता को प्रकाश में लाना है। इस अर्थ में कि कलाकार अपने रचनात्मक विचारों और ज्ञान को व्यक्त करके शांत रूप से स्वयं का निर्माण कर रहा होता है। टैगोर की यह कला दृष्टि जीवन के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का संकेत हैं। जीवन के अंतिम चरण में अपनी कृतियों से सबको चमत्कृत करने वाले रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने अन्य रचनात्मक गतिविधियों के बीच, दो हजार से अधिक पेंटिंग का निर्माण किया और खुद को आधुनिक भारत के एक अभूतपूर्व चित्रकार के रूप में स्थापित किया! (वर्ष 1941) अपने निधन से पूर्व तक टैगोर की आधुनिकता बाहरी दुनिया के साथ उनके निर्मिंत ‘स्व’ में उनके अंर्तमन की गहराई तक निहित रही।
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