चित्रकला के इतिहास में ऐसे तमाम चित्र हैं जो न केवल अपने कला गुणों के कारण प्रसिद्ध हैं, बल्कि अपने साथ जुड़े सन्दर्भों के कारण भी वे हमें आकर्षित करते हैं। बीसवीं सदी के महानतम चित्रकार पाब्लो पिकासो (1881-1973) की कृति 'विज्ञान और परोपकार' एक ऐसी ही कृति है। स्पेन के बार्सिलोना शहर में स्थित पिकासो म्यूजियम में प्रदर्शित कैनवास पर तैल रंग से बने , विशाल आकार (78 x 98 इंच ) के इस चित्र को पिकासो ने महज़ पंद्रह वर्ष की उम्र में बनाया था। पिकासो बचपन से ही बेहद प्रतिभाशाली थे और यह चित्र बनाते ही वे कलाकारों और कला प्रेमियों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे।
यूरोप का यह समय चित्रकला में 'सामाजिक यथार्थ' के चित्रण का समय था। इस दौर के अनेक चित्रों में समाज के दबे कुचले लोगों के सुख-दुःख का अत्यंत सजीव चित्रण मिलता है। पिकासो के चित्र 'विज्ञान और परोपकार' में एक ऐसे ही साधारण से कमरे में किनारे की तरफ़ बिछे बिस्तर पर लेटी एक बीमार औरत और उसकी कलाई पर हाथ रखे डॉक्टर को दिखाया गया है। इस मरीज़ के पास, दूसरी ओर एक महिला खड़ी है। गोद में एक बच्ची को लिए यह महिला अपनी वेशभूषा के आधार पर कोई सन्यासिनी या स्वास्थ्य सेविका लगती है, जो बीमार औरत को एक कप में पानी (या सम्भवतः दवा ) दे रही है। इन सब के बीच बीमार औरत उस बच्चे को एकटक ममता भरी आँखों से देख रही है। पूरा दृश्य इतना नाटकीय है कि इसे देखते समय चित्र की परतें किसी मार्मिक कथा की तरह दर्शक के सामने खुलने लगती हैं।
चित्र 'विज्ञान और परोपकार' में पिकासो ने मरीज़ का इलाज करते हुए चिकित्सक के माध्यम से 'विज्ञान' को दिखाया है वहीं चित्र में बीमार की सेवा करती सन्यासिनी के रूप में 'परोपकार' को दिखाया है। इस सकारात्मक पक्ष के बावजूद, मरीज़ का अपने बच्चे की ओर बुझती आँखों से देखना, चित्र का सबसे प्रभावशाली पक्ष है क्योंकि इसके माध्यम से ही बीमार औरत और बच्चे के पारस्परिक भावनात्मक रिश्ते को दर्शक समझ पाता है। बिस्तर से सटी हुई कुर्सी पर बैठा डॉक्टर इस बीमार और कमज़ोर औरत की नब्ज़ देख रहा है। गौर से देखने पर हमें मरीज़ का हाथ डॉक्टर के हाथ की तुलना में न सिर्फ़ बहुत ज्यादा कमज़ोर दिखता है बल्कि उसके अपने ही दूसरे हाथ की तुलना में यह कुछ अलग सा दिखाई देता है। इसके अलावा, चित्र में बिस्तर पर लेटी हुई महिला कितनी कमज़ोर है इसका आभास हमें उसके शरीर को ढँके लगभग सपाट कम्बल को देख कर भी होता है, जिस पर पैरों के अलावा कहीं कोई और उभार नहीं दिखता। इसी चित्र में डॉक्टर अपने दूसरे हाथ से पकड़ी हुई जेब घड़ी को देखते हुए मरीज़ के नब्ज़ की गति को समझने की कोशिश कर रहा है। पिकासो ने इस चित्र में एक दुर्लभ खामोशी रची है, जहाँ अनिश्चय और उम्मीद दोनों एक मुहूर्त पर आकर टिक गए हैं और ऐसे में यदि दर्शक गौर से सुने तो शायद उसे केवल डॉक्टर की जेब घड़ी की टिक टिक ही सुनाई देगी।
पिकासो के कला गुरु उनके पिता जोज़ रुइज़ ब्लैस्को थे। इस चित्र में पिकासो के पिता ही डॉक्टर के लिए मॉडल बने थे। उन दिनों बार्सेलोना शहर की सड़क पर एक भिखारिन अक्सर अपने बच्चे को गोदी में लिए भीख माँगती हुई दिख जाती थी। पिकासो ने इसी भिखारिन को पैसे देकर, अपने चित्र 'विज्ञान और परोपकार' के लिए मॉडल बनाया था और बच्ची को गोद में लिए खड़ी 'नन' या सन्यासिन के चित्रण हेतु अपने एक मित्र का सहारा लिया था।
इस चित्र को उस वर्ष (1897 में) स्पेन की कई कला प्रदर्शनियों में अभूतपूर्व प्रशंसा मिली और कला समीक्षकों द्वारा पिकासो की प्रतिभा को पहचाना गया। इस चित्र को बनाने के कुछ ही समय बाद पिकासो ने गरीब, बदहाल, बीमार और उपेक्षित जनों को विषय बनाकर अपने चित्र श्रृंखला की शुरुआत की थी, जिसे हम पिकासो के 'नीला-काल' के रूप में जानते हैं। 'विज्ञान और परोपकार' शीर्षक चित्र में उस 'नीला काल' का पूर्वाभास मिलता है।
अशोक भौमिक की फेसबुक पोस्ट से
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