भारतीय मूर्तिकारों ने प्राचीन काल से ही मिट्टी, पत्थर और धातु (विशेषकर कांस्य) में उत्कृष्ट प्रतिमाएँ बनाने में महारत हासिल कर ली थी। मूर्तियों को ढालने के लिए सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही 'लुप्त मोम' (Lost-wax) तकनीक का प्रयोग किया जाता था।
प्रमुख कालखंड और उनकी प्रतिमाएँ
1. प्राचीन काल
मोहनजोदड़ो (2500 ईसा पूर्व): यहाँ से मिली 'नाचती हुई लड़की' की कांस्य मूर्ति सबसे प्राचीन मूर्तियों में से एक है।
दायमाबाद (1500 ईसा पूर्व): महाराष्ट्र में स्थित इस स्थल पर एक कांस्य रथ की प्रतिमा मिली है।
2. मौर्योत्तर और गुप्त काल
चौसा (बिहार) और अकोटा (गुजरात): इन स्थानों से जैन तीर्थंकरों की कांस्य प्रतिमाएँ मिली हैं, जो दूसरी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच की हैं।
गुप्त काल (5वीं-7वीं शताब्दी): इस काल में बुद्ध की अनेक प्रतिमाएँ खड़ी मुद्रा में बनीं, जिनमें सारनाथ और सुल्तानगंज की मूर्तियाँ प्रमुख हैं।
वाकाटक काल: महाराष्ट्र के फोफनर से बुद्ध की वाकाटककालीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
पाल शैली (9वीं-12वीं शताब्दी): बिहार और बंगाल में कांस्य मूर्तिकला की एक नई शैली विकसित हुई। इस काल की चतुर्भुज अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
3. दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में कांस्य मूर्तियों का विकास अपने चरम पर पहुँचा।
पल्लव काल (8वीं-9वीं शताब्दी): इस काल में शिव की अर्द्धपर्यंक मूर्ति (तन्जावुर के पास बालाजी से मिली) जैसे उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं।
चोल काल (10वीं-12वीं शताब्दी): इस काल की सबसे प्रसिद्ध मूर्ति 'नटराज' (शिव का नृत्य रूप) है। तंजावुर क्षेत्र में शिव की मूर्तियों के कई रूप विकसित हुए, जिनमें कल्याणसुंदर की मूर्ति विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
विजयनगर साम्राज्य (16वीं शताब्दी): इस काल में मूर्तिकारों ने अपने शासकों की मूर्तियाँ भी बनाईं, जिनमें कृष्णदेव राय की प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं।
निष्कर्ष
भारतीय मूर्तिकला का इतिहास अत्यंत समृद्ध है। यह कला न केवल धार्मिक मान्यताओं को दर्शाती है, बल्कि विभिन्न कालखंडों की तकनीकी प्रगति और कलात्मक शैलियों को भी उजागर करती है।
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