राजा रवि वर्मा (1848-1906) को भारतीय कला के इतिहास में सबसे महान चित्रकारों में से एक माना जाता है। उन्होंने भारतीय विषयों को पश्चिमी कला तकनीकों के साथ मिलाकर एक नई शैली को जन्म दिया। वह पहले भारतीय कलाकारों में से थे जिन्होंने कैनवास पर तेल चित्रकला (oil on canvas) की तकनीक में महारत हासिल की, और उनके बाद कई अन्य कलाकारों ने भी इस शैली को अपनाया।
कलात्मक शैली और प्रभाव
रवि वर्मा की कला यूरोपीय तकनीकों और भारतीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम थी। उन्होंने अपनी पेंटिंग में तंजौर शैली, 19वीं सदी के पारसी थिएटर, मलयालम क्लासिक्स और केरल की कथकली जैसी भारतीय कलाओं का प्रभाव शामिल किया। उनके चित्रों में भारतीय पौराणिक कथाओं, विशेषकर हिंदू देवी-देवताओं और महाकाव्यों जैसे महाभारत (दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती) के दृश्यों को दर्शाया गया।
कला को आम लोगों तक पहुँचाना
रवि वर्मा की सबसे बड़ी उपलब्धि कला को जन-जन तक पहुँचाना था। उन्होंने 1894 में मुंबई में एक लिथोग्राफिक प्रेस की स्थापना की, जहाँ उन्होंने अपने चित्रों के सस्ते लिथोग्राफ (Lithographs) और ओलियोग्राफ (Oleographs) बनाए। ये प्रिंट बहुत लोकप्रिय हुए और दशकों तक आम लोगों की कलात्मक रुचि को आकार देते रहे। उनके द्वारा बनाए गए देवी-देवताओं के चित्र घर-घर में पूजा के उद्देश्य से इस्तेमाल होने लगे, जिससे उनकी कला का प्रभाव भारतीय समाज पर गहरा हुआ।
आलोचना और विरासत
अपनी लोकप्रियता के बावजूद, रवि वर्मा की शैली की आलोचना भी हुई। कुछ लोगों ने उनके काम को अति-भावुक और नाटकीय माना। बंगाल में उभर रहे राष्ट्रवादी कला आंदोलन के लिए उनकी शैली को अनुपयुक्त समझा गया। हालांकि, उनके काम को केवल पश्चिमी कला की नकल मानना एक गलती होगी। उन्होंने यूरोपीय तकनीकों को भारतीय प्रकाश और संदर्भ के अनुसार ढाला और एक ऐसी नई दृष्टि पैदा की जिसने भारतीय कला को आधुनिकता की ओर मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका योगदान भारतीय कला में एक नए युग का सूत्रपात था।
राजा रवि वर्मा के प्रसिद्ध चित्र और उनकी कहानियाँ
राजा रवि वर्मा को उनकी पौराणिक और साहित्यिक कृतियों के लिए जाना जाता है। उनके कुछ सबसे प्रसिद्ध चित्र इस प्रकार हैं:
शकुंतला: महाभारत के दुष्यंत और शकुंतला की कहानी पर आधारित यह चित्र बेहद लोकप्रिय है। इसमें शकुंतला को अपने प्रेमी दुष्यंत को याद करते हुए एक पत्र लिखते हुए दिखाया गया है। रवि वर्मा ने इस चित्र में प्रेम और विरह की भावनाओं को अत्यंत खूबसूरती से दर्शाया है।
दमयंती और हंस: यह चित्र महाभारत की एक और कथा पर आधारित है। इसमें दमयंती को एक हंस से अपने प्रेमी नल के बारे में सुनते हुए दर्शाया गया है। रवि वर्मा ने इस चित्र में दमयंती की सुंदरता और उसकी भावनाओं को बखूबी कैद किया है।
विश्वामित्र और मेनका: यह चित्र ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पौराणिक कथा को दर्शाता है। यह उनके द्वारा बनाए गए भावुक और नाटकीय चित्रों का एक बेहतरीन उदाहरण है।
फल के साथ महिला (लेडी विद द फ्रूट): यह एक साधारण व्यक्ति चित्र है जो रवि वर्मा की यथार्थवादी शैली का एक उत्तम उदाहरण है। इसमें उन्होंने एक दक्षिण भारतीय महिला की सुंदरता को उसके साधारण रूप में दर्शाया है।
कला का भारतीय समाज पर प्रभाव
राजा रवि वर्मा का सबसे बड़ा योगदान कला का लोकतंत्रीकरण था। जहाँ पारंपरिक कला मंदिरों और महलों तक सीमित थी, वहीं रवि वर्मा ने अपनी लिथोग्राफिक प्रेस के माध्यम से इसे आम लोगों तक पहुँचाया।
देवताओं का मानवीकरण: उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं को मानवीय और सुलभ रूपों में चित्रित किया। उनके द्वारा बनाए गए लक्ष्मी, सरस्वती और राम-कृष्ण के चित्र इतने लोकप्रिय हुए कि वे भारतीय जनमानस में इन देवताओं की मानक छवि बन गए।
जनता की कलात्मक रुचि को आकार देना: उनके सस्ते ओलियोग्राफ और प्रिंट घर-घर में पहुँच गए, जिससे आम लोगों की कलात्मक रुचि को एक नई दिशा मिली। उनकी "कैलेंडर कला" कई दशकों तक भारत में लोकप्रिय सौंदर्यबोध का प्रतीक बनी रही।
बंगाल स्कूल के साथ कला का टकराव
रवि वर्मा की कला और बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट के बीच एक बड़ा वैचारिक अंतर था, जो भारत में आधुनिक कला की दिशा पर एक महत्वपूर्ण बहस बन गई।
रवि वर्मा की शैली (पश्चिमी यथार्थवाद): उनकी कला पश्चिमी शैक्षणिक यथार्थवाद पर आधारित थी। उन्होंने तेल पेंटिंग, परिप्रेक्ष्य और छायांकन (chiaroscuro) जैसी यूरोपीय तकनीकों का उपयोग किया। इस शैली का लक्ष्य पौराणिक दृश्यों को लगभग फोटोग्राफिक सटीकता के साथ चित्रित करना था, जिसे कुछ लोगों ने किच या अति-भावुक माना।
बंगाल स्कूल की शैली (भारतीय राष्ट्रवाद): इसके विपरीत, बंगाल स्कूल एक राष्ट्रवादी आंदोलन था। अवनींद्रनाथ टैगोर जैसे कलाकारों ने पश्चिमी कला को खारिज कर दिया और भारतीय कला की जड़ों की ओर लौटे। उन्होंने मुगल और राजपूत लघुचित्रों के साथ-साथ अजंता की दीवारों पर बने चित्रों से प्रेरणा ली। उनकी शैली अधिक लाक्षणिक और आध्यात्मिक थी, जिसमें वॉश तकनीक और हल्के रंगों का उपयोग होता था।
यह टकराव केवल कलात्मक तकनीकों का नहीं था, बल्कि यह औपनिवेशिक विरासत को स्वीकार करने या उसे अस्वीकार करने की एक वैचारिक लड़ाई थी। जहाँ रवि वर्मा ने पश्चिमी उपकरणों के माध्यम से भारतीय विषयों को चित्रित किया, वहीं बंगाल स्कूल ने एक ऐसी कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जो पूरी तरह से भारतीय थी।
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