"शील" (शिष्टता या शालीनता) और "अश्लील" (अशिष्टता या अशालीनता) के बीच का अंतर एक गहरी और जटिल बहस का विषय है, विशेषकर कला की दुनिया में। कला का उद्देश्य केवल सौंदर्य, सौम्यता, और संस्कृति को प्रदर्शित करना नहीं है, बल्कि कभी-कभी यह समाज के उन पहलुओं को भी उजागर करता है, जिन्हें अनदेखा किया जाता है। इसे लेकर कई दृष्टिकोण होते हैं।
1. कला की परिभाषा और उद्देश्य:
कला का उद्देश्य केवल सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि यह समाज में विभिन्न भावनाओं, विचारों और स्थितियों को भी प्रस्तुत करने का साधन है। कलाकार अपने विचारों, अनुभवों, और भावनाओं को अपनी कला के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। कई बार ये प्रस्तुतिकरण दर्शकों के व्यक्तिगत विश्वास और मान्यताओं के अनुसार अश्लील या शिष्ट दोनों हो सकते हैं।
2. "शील" और "अश्लील" के मानक:
शील और अश्लीलता का मानक हर व्यक्ति, समाज, और संस्कृति में अलग हो सकता है। एक ही चित्रकला या शिल्पकला को कुछ लोग शालीन समझ सकते हैं, जबकि दूसरे इसे अशिष्ट मान सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय मंदिरों की मूर्तियों में कामुकता का प्राचुर्य देखा जाता है। इसे कुछ लोग कला का हिस्सा मानते हैं, जबकि कुछ इसे अश्लीलता के रूप में देखते हैं।
3. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता:
कला को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में भी देखा जाता है। किसी कलाकार का उद्देश्य समाज में किसी विषय पर चर्चा प्रारंभ करना भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में, अगर कोई कलाकृति समाज के स्थापित मानकों के विपरीत जाती है, तो उसे अश्लील कहने की बजाए उसके उद्देश्य और संदेश पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
4. शिष्ट और अशिष्ट के बीच धुंधला अंतर:
कई बार कला में शिष्टता और अशिष्टता के बीच का अंतर धुंधला हो जाता है, और यह सवाल उठता है कि क्या कला को इस प्रकार वर्गीकृत करना सही है। यह एक विचारधारात्मक मुद्दा है जो प्रत्येक व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। एक चित्र या मूर्ति में कामुकता का होना उसे अशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि इसका उद्देश्य, प्रस्तुति, और प्रसंग उसकी वास्तविक प्रकृति को निर्धारित करते हैं।
निष्कर्ष:
कला में शील और अश्लील का विभाजन व्यक्तिगत और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य पर निर्भर करता है। महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी कलाकृति का आकलन उसके उद्देश्य और उसके संदर्भ के आधार पर किया जाए, बजाय इसे केवल शील या अश्लील के दृष्टिकोण से देखने के।
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