भारतीय चित्रकला: महत्वपूर्ण तथ्य

 भारतीय चित्रकला का इतिहास बहुत ही समृद्ध और गहरा है, जिसे विभिन्न शैलियों और उद्देश्यों के साथ विकसित किया गया है।

भारतीय चित्रकला के प्रकार और उद्देश्य

  • 4 रूप: भारतीय चित्रकला के चार मुख्य रूप हैं - भित्ति चित्र, पट चित्र, चित्रफलक, और लघु चित्र

  • उद्देश्य: चित्रकला का उद्देश्य जीवन के चार लक्ष्यों - अर्थ, धर्म, काम, और मोक्ष की प्राप्ति करना माना गया है।

  • शैली: भारतीय चित्रकला मुख्य रूप से रेखा प्रधान है, जिसमें रेखाओं का विशेष महत्व है।

प्रमुख ग्रंथ और सिद्धांत

  • विष्णुधर्मोत्तर पुराण:

    • रचनाकार: मार्कण्डेय मुनि

    • 'चित्रसूत्र' इसका तृतीय खंड है, जिसमें 35 से 43 अध्याय तक चित्रकला का वर्णन है।

    • चित्रसूत्र में 9 रसों और 5 रंगों (श्वेत, पीत, रक्त, कृष्ण, नील) का उल्लेख है।

    • इसमें चार प्रकार के चित्र (सत्य, वैणिक, नागर, मिश्र) बताए गए हैं।

  • चित्र लक्षण:

    • रचनाकार: नग्नजित (पूर्व नाम भयजित)।

    • रचना काल: 500 ई. पूर्व से 200 ई. पूर्व।

    • तीसरे अध्याय में चित्रकला से संबंधित सिद्धांत उल्लेखित हैं।

  • अभिलाषितार्थ चिंतामणि (मानसोल्लास):

    • लेखक: सोमेश्वर

    • रचना काल: 1129 ई.।

    • इसमें चार प्रकार के चित्र (विद्ध, अविद्ध, रसचित्र, धूलि चित्र) बताए गए हैं।


भारतीय साहित्य में चित्रकला

  • ऋग्वेद: इसमें यज्ञशाला की चौखटों पर बनी स्त्री और देवियों (ऊषा और रात्रि की प्रतीक) की आकृतियों का उल्लेख है।

  • महाभारत:

    • रचनाकार: महर्षि वेदव्यास (400 ई. पूर्व)।

    • इसमें ऊषा और अनिरुद्ध की प्रेम कहानी के प्रसंग में चित्रकला का उल्लेख है, जहाँ चित्रलेखा नामक पात्र ने अनिरुद्ध का चित्र बनाया था।

  • रामायण:

    • रचनाकार: महर्षि वाल्मीकि (500 ई. पूर्व)।

    • इसमें महलों, चित्रशालाओं, पालकियों और रथों का वर्णन है, जो स्थापत्य, वास्तु और चित्रकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है।

  • अष्टाध्यायी: रचनाकार पाणिनि

  • नाट्यशास्त्र:

    • जन्मदाता: आचार्य भरतमुनि

    • इसमें लाल, पीले, और काले रंग को मूल रंग माना गया है।

  • कामसूत्र:

    • लेखक: वात्स्यायन

    • 'जयमंगला' नामक ग्रंथ के लेखक पंडित यशोधर हैं।


षडांग (चित्रकला के छह अंग)

भारतीय चित्रकला के छह अंग, जिन्हें षडांग कहा जाता है, कला के विभिन्न पहलुओं को परिभाषित करते हैं:

  1. रूपभेद: विभिन्न आकृतियों और उनकी विशेषताओं को समझना।

  2. प्रमाण: आकृतियों के सही अनुपात का ज्ञान। कलाचार्यों ने प्रमाण के आधार पर पाँच रूप (मानव, भयानक, राक्षस, कुमार, बालक) बताए हैं। एक सिर को ताल या इकाई माना जाता है।

  3. भाव: आकृति के मनोभावों, स्वभाव और व्यंग्य को व्यक्त करना। भरतमुनि ने 8 रस माने हैं, जबकि कुल 9 रस होते हैं।

  4. लावण्य योजना: रूपों के सौंदर्य और आकर्षण को दर्शाना।

  5. सादृश्य: देखे हुए रूपों की समान आकृति बनाना।

  6. वर्णिका भंग: विभिन्न रंगों के प्रभाव, मिश्रण, और उनके प्रयोग की विधियों का ज्ञान। इसे तूलिका ज्ञान भी कहते हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य:

  • वर्तना को छाया कहा जाता है।

  • विभाव के भेद आलम्बन और उद्दीपन हैं।

  • अनुभाव के भेद कायिका, मानसिक और सात्विक हैं।

  • संचारी भावों की संख्या 33 है।

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