मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, भारत में विभिन्न राजवंशों, जैसे शुंग, कण्व, कुषाण और गुप्त (उत्तर भारत) तथा सातवाहन, इक्ष्वाकु, आभीर और वाकाटक (दक्षिण भारत) का उदय हुआ। इस काल में कला और स्थापत्य में महत्वपूर्ण बदलाव आए, जिसमें बौद्ध, जैन, वैष्णव और शैव धर्मों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
प्रमुख कला केंद्र और उनकी विशेषताएँ
भरहुत (मध्य प्रदेश)
प्रतिमाओं की शैली: यहाँ की मूर्तियाँ मौर्यकालीन यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाओं जैसी ही विशाल (लम्बी) हैं।
तकनीकी पहलू: प्रतिमाएँ सतह से अधिक उभरी हुई नहीं हैं और उनमें आयतन का अभाव है।
विषय-वस्तु: आख्यान (कथा) फलकों में मुख्य पात्रों के साथ अन्य पात्रों को भी प्रदर्शित किया गया है, लेकिन कथा को आगे बढ़ाने में मुख्य पात्र ही प्रभावी होते हैं।
सांची का स्तूप (मध्य प्रदेश)
वास्तुशिल्प: सांची के स्तूप में दो प्रदक्षिणा पथ और चार तोरण द्वार हैं, जिन पर बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं को दर्शाया गया है।
प्रतिमाओं की शैली: यहाँ की प्रतिमाओं का संयोजन भव्य है और वे अधिक स्वाभाविक दिखती हैं। आभूषणों और वस्त्रों के चित्रण में उन्नत तकनीक का उपयोग किया गया है।
मथुरा, सारनाथ और गांधार
मानव रूप में बुद्ध: पहली शताब्दी ईस्वी में मथुरा और गांधार में पहली बार बुद्ध को मानव रूप में दर्शाया गया।
गांधार शैली: इस शैली में भारतीय और ग्रीक कला का संगम दिखाई देता है। बुद्ध की प्रतिमाओं में ग्रीक शैली की विशेषताएँ (जैसे घुंघराले बाल और वस्त्रों की सिलवटें) पाई जाती हैं।
मथुरा शैली: यह शैली भारतीय परंपरा पर आधारित थी। यहाँ जैन तीर्थंकरों, विष्णु और शैव देवताओं की मूर्तियाँ भी पाई गई हैं।
दक्षिण भारतीय बौद्ध स्मारक
आंध्र प्रदेश के वेंगी क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल हैं:
अमरावती स्तूप:
वास्तुशिल्प: इसमें एक महाचैत्य है, जिसके चारों ओर वेदिका से ढका प्रदक्षिणा पथ है।
कला शैली: प्रतिमाओं में विभिन्न हाव-भाव और भंगिमाएँ (त्रिभंग) दिखाई देती हैं। यहाँ की आकृतियों में लोच और गतिशीलता है।
चरण: इसका विकास तीन चरणों में हुआ, जो 200 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के बीच का है।
नागार्जुनकोंडा और गोल (तीसरी शताब्दी ईस्वी):
यहाँ की प्रतिमाओं में गतियों का प्रवाह कुछ कम है, लेकिन शरीर में उभरी हुई मांसलता का प्रभाव दिखाई देता है।
यहाँ बुद्ध और बोधिसत्वों (अवलोकितेश्वर, पद्मपाणि, वज्रपाणि) की कई प्रतिमाएँ पाई गई हैं।
पश्चिमी भारतीय गुफाएँ
पश्चिमी भारत में बड़ी संख्या में बौद्ध गुफाएँ हैं, जिन्हें दो मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
चैत्य (पूजा स्थल):
वास्तुशिल्प: ये गुफाएँ मुख्य रूप से प्रार्थना के लिए बनाई गई थीं, जिनमें एक आयताकार हॉल और पीछे की ओर एक स्तूप होता था।
उदाहरण: अजंता (गुफा सं. 9, 10, 19, 26), भाजा, और कार्ले की गुफाएँ।
विहार (भिक्षुओं के निवास स्थान):
वास्तुशिल्प: इनमें एक बरामदा, एक बड़ा हॉल और उसके चारों ओर भिक्षुओं के लिए कक्ष होते थे।
उदाहरण: अजंता (गुफा सं. 12), नासिक (गुफा सं. 3, 10, 17)।
अजंता (महाराष्ट्र)
गुफाएँ: यहाँ कुल 26 गुफाएँ हैं, जिनमें चैत्य और विहार दोनों शामिल हैं।
चित्रकला:
शैली: यहाँ के चित्रों में स्पष्ट रेखाएँ, लयबद्धता और सरल रंग-योजना है।
विषय-वस्तु: बुद्ध के जीवन, जातक कथाएँ और अवदानों का चित्रण है।
चरण: चित्रों को दो चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
पहला चरण (ईसा पूर्व पहली शताब्दी): गुफा संख्या 9 और 10 में सीमित रंगों का प्रयोग और स्वाभाविक आकृतियाँ।
दूसरा चरण (ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी): गुफा संख्या 16, 17, 1 और 2 में अधिक जटिल और विस्तृत चित्रकला।
एलोरा (महाराष्ट्र)
गुफाएँ: यहाँ बौद्ध, ब्राह्मण और जैन धर्मों से संबंधित 34 गुफाएँ हैं।
ब्राह्मण गुफाएँ: गुफा संख्या 13-28 ब्राह्मण धर्म से संबंधित हैं, जिनमें शैव और वैष्णव कथाएँ चित्रित हैं (जैसे कैलाश पर्वत को हिलाता रावण)।
प्रतिमाओं की शैली: यहाँ की प्रतिमाएँ विशाल और भारी हैं, जिनमें देहातीपन का शानदार प्रदर्शन हुआ है।
अन्य महत्वपूर्ण स्थल
बाघ (मध्य प्रदेश): यहाँ की गुफाएँ बौद्ध धर्म से संबंधित हैं, जिनमें से गुफा संख्या 4, जिसे 'रंग महल' कहा जाता है, अपने चित्रों के लिए प्रसिद्ध है।
एलिफेंटा (महाराष्ट्र): ये गुफाएँ शैव धर्म को समर्पित हैं और एलोरा के समकालीन हैं। यहाँ की मूर्तियों में शरीर का पतलापन और लोच दिखाई देता है।
उदयगिरि-खंडगिरि (ओडिशा): ये गुफाएँ जैन मुनियों के लिए बनाई गई थीं, जिनमें खारवेल जैन राजाओं के अभिलेख मिलते हैं।
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